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________________ [११६] तथात्मनैव स्वात्मेति सिद्ध एव प्रमाणतः । मन्यते स्वात्मनिष्ठेन कुंथूसागरयोगिना ॥ २९६॥ उत्तर:- मूढ बुद्धिको धारण करनेवाले जो पुरुष अपना आत्मसुख प्राप्त करनेके लिये इन्द्रिय और मनके द्वारा आत्माको देखना वा जानना चाहते हैं उन्हें मुखमं भी मुख्य समझना चाहिये । क्योंकि ये संसारी जीव मन वचन और इन्द्रियोंसे रूप रस गंध स्पर्श युक्त पुगलको ही देख वा जान सकते हैं, चैतन्य स्वरूप आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है इसलिये उसको वे मन वचन काय वा इन्द्रियों से नहीं देख वा जान सकते । परोक्षरूप आत्माको देखने और जाननेमें मन वचन काय और इन्द्रियोंको सहायक मात्र समझना चाहिये । वास्तवमें देखा जाय तो यह आत्मा अपने आत्मा के सुखके लिये अपने आत्मा को अपने ही आत्मामें अपने ही आत्माके द्वारा अपने आत्माकं ही स्वभावसे देखता और जानता हैं । जिस प्रकार दीपककी सहायतासे घटादिक पदार्थ जाने जाते हैं उसी प्रकार यह आत्मा अपने ही आत्मा के द्वारा जाना जाता है यह बात प्रमाणसे सिद्ध हैं । अपने आत्मामें लीन रहनेवाले मुनिराज कुंथुसागरजी भी इसी प्रकार मानते हैं ।। २११-२१६ ॥ कीदृशं शस्यते ज्ञानं जिनैर्वेद जगद्गुरो !
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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