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[१२] निंदां तृतीयोऽपि करोति पापी, स्तवं चतुर्थः प्रकटीकरोति ॥२०४॥ करोति सेवां खलु पंचमोऽपि, खड़ेन षष्ठोऽथ वपुर्भिनत्ति। सर्वेऽप्यमी स्तावकनिन्दका भोः, सुवंचकाः सन्ति यथार्थदृष्ट्या ॥२०५॥ ज्ञात्वेति धीरो रमते स्वधर्म, स्थिरे निजानन्दपदे विशुद्धे । अत्यंतशुद्धे हि निजप्रदेशे, स्वर्मोक्षदस्तिष्ठति विश्ववन्द्यः ॥२०६॥ उत्तरः--कोई एक पुरुष तो साधुके गलेमें सर्प डाल देता है, कोई दूसरा मनुष्य उनकी पूजा करता है, तीसरा कोई पापी आकर उनकी निंदा करता है, चौथा पुरुष आकर उनकी स्तुति करता है, पांचवा कोई पुरुष आकर उनकी सेवा करता है, अन्य छठा मनुष्य आकर अस्त्र शस्त्रोंसे उनके शरीरको छेद डालता है परंतु उन अवस्थाओंमें वे साधु यही समझते हैं कि इस पृथ्वीपर ये स्तुति वा निंदा करनेवाले सब लोग यथार्थ दृष्टिसे देखे जाय तो ठगनेवाले हैं। यही समझकर