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[१०२] मोंसे देवायुका बंध होता है । इसप्रकार आत्मज्ञान-रहित संसारी समस्त जीव आयुकर्म का बंध करते रहते हैं। संसारमें परिभ्रमण करानेवाले और दुःख देनेवाले आयु कर्मका बंध प्रायः मोहकी विशेषतासे होता है और इसीलिये जो जीव ऊपर कहे हुए भावोंसे सर्वथा रहित है वह किसी समयमें भी कर्मोंका बंध नहीं करता है ॥१८५ ॥ १८६ ॥
सम्यक्त्वयुक्ता जानन्ति स्वकीयं दर्शनं न वा।
प्रश्नः-सम्यग्दृष्टि जीव अपने सम्यग्दर्शन को जानते हैं वा नहीं।
ध्रुवं स्वसम्यक्त्वरविं सुभव्या, स्वबोधनत्रैः प्रविलोकयन्ति । वैराग्यसंवेगशुभस्वभावाच्छ्रद्धादिचिह्नश्च तथा परेषाम् ॥१८७॥ उत्तरः-भव्य जीव अपने सम्यग्दर्शन रूपी सूर्यको अपने ज्ञानरूपी नेत्रोंसे देखते हैं अथवा वैराग्य, संवग, शुभस्वभाव और श्रद्धा आदि चिन्होंसे भी जानलेते हैं। इसीपकार वैराग्य, संवेग, शुभस्वभाव और श्रद्धा आदि चिन्होंसे दूसरों के सम्यग्दर्शनको भी जानलेते हैं ॥१८७॥