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________________ [९०] स्पर्शादिवर्णं खलु पुद्गलोऽपि, कालोऽपि नित्यं परिवर्तनत्वम् । धर्मोऽप्यधर्मोऽपि गतिस्थितित्व-, माकाशमेवं ह्यवकाशदानम् ॥ १६४ ॥ साध्वी सुशीलं सुनृपः सुनीति, साधुः स्वधर्मं न जहाति लोके । तथैव धर्मं स्तवनिन्दनेन, सदृष्टिजीवो न जहाति भावात् ॥१६५ उत्तरः-जिस प्रकार इस संसार में सूर्य अपनी तीवताको नहीं छोडता, चन्द्रमा अपनी शीतताको नहीं छोडता, पुष्प सुगंधको नहीं छोडता, ईख और दूध मधुरताको नहीं छोडता, नीम कडवेको नहीं छोडता, सर्प विषको नहीं छोडता, पानी नीचगति ( नीचेकी ओर जाना ) को नहीं छोडता, पापी नीच मनुष्य अपनी कुटिलताको नहीं छोडता, अग्नि उष्णताको नहीं छोडती, वैभाविक परिणाम कलहको नहीं छोडता, समस्त जीव चैतन्यशक्ति को नहीं छोडते, पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्णको नहीं छोडता, काल अपने परिवर्तन स्वभावको नहीं छोडता, धर्मद्रव्य गति हेतुत्वको नहीं छोडता, अधर्मद्रव्य स्थितिहेतुत्वको नहीं छोडता, आकाश अवकाशदानको नहीं छोडता, सती स्त्री
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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