SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ८४] आचारहीनो हि विचारशून्यो, मिथ्याप्रलापी च बहुप्रमादी । अभक्ष्यभक्षी विपरीतवृत्ति, बह्वन्नभोजी जिनधर्मबाह्यः ॥१५॥ दंभी च लोभी विषये निमग्नो, दानादिधर्माद्धि सदैव दूरः । पूर्वोकभावरिति यश्च युक्तः, स एव गंता च गतिं तिरश्चाम् ॥१५२॥ उत्तर:-जो पुरुष आचाररहित है, विचारहित है, सदा मिथ्या बकवाद करता रहता है, अत्यंत प्रमादी है, अभक्ष्य भक्षण करनेवाला है, अपनी प्रवृत्ति सदा धर्मसे विपरीत रखता है, जो अधिक अन्न भक्षण करनेवाला है जिनधर्म से पराङ्मुख है, माया चारी है, लोभी है, विषयों में सदा लीन रहता है और दानपूजा आदि धर्मसे सदा दूर रहता है, जो जीव ऊपर कहे अनुसार अशुभ भावोंको धारण करता है उसे तिर्यच गतिमें जानेवाला समझना चाहिये ॥ १५१ ॥ १५२ ॥ - मनुष्ययोनि को जीवो यातीति वद भी गुरो ! प्रश्न:--हे गुरो ! मनुष्ययोनिमें जाकर कौनसा जीक उत्पन्न होता है।
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy