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________________ [ ८२ ] ध्यानोपवासश्च तपो जपो ऽपि, स्वाध्यायशान्तिः स्वपरोपकारः ॥ १४७॥ सम्यक्प्रवृत्तिः कुलजातिरक्षा, विचारशक्तिर्निजतत्त्वचर्चा । आर्यस्य कार्याणि सुखप्रदानि, प्रोक्तानि चैतानि शिवप्रदानि ॥ १४८ ॥ उत्तरः- अपने आत्माकी शुद्धि करना, देव और गुरुकी सेवा करना, पात्रदान देना, देवपूजा करना, भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए तीर्थोंकी यात्रा करना, ध्यान करना, उपवास करना, तप करना, जप करना, स्वाध्याय करना, शक्ति धारण करना, अपने आत्माका कल्याण करना, अन्य जीवांका कल्याण करना, अपनी प्रवृत्ति यत्नाचारपूर्वक करना, अपने कुल और जातिकी रक्षा करना, तत्त्वोंके विचार करनेकी शक्ति रखना और अपने आत्मतत्त्वकी चर्चा करते रहना, ये सब सुख देनेवाले और मोक्षप्रदान करनेवाले शुभकार्य भगवान जिनेन्द्रदेवने आर्यपुरुषोंके बतलाये हैं || १४७ ॥ १४८ ॥ भो गुरो ! कीदृशो जीवो नरकं याति सत्वरम् ? प्रश्नः - हे गुरो ! कैसा जीत्र शीघ्र ही नरक पहुंचता है ?
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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