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________________ [७८] ये केपि जीवा विषयोद्भवाद्वा, भोगोपभोगाद्वपुषो विरक्ताः। सन्तो हि गन्तुं स्वगृहं यतन्ते, कर्तुं स्वराज्यं स्वरसस्य पानम् ॥१४०॥ तेषां प्रवासो हि निजप्रदेशे, चैतन्यराज्ये च भवेन्निवासः । अन्ते निवासः सततं भवेद्वा, कर्मप्रणाशात्सुखपूर्णमाक्षे ॥१४१॥ उत्तरः-जो कोई जीव इस विषम संसारसे भोगापभोगोंसे और शरीरसे विरक्त हो गये हैं तथा जो आत्मजन्य स्वराज्य करने के लिये और आत्मजन्य आनंदामृत रसका पान करने के लिये अपने मोक्षरूप घर के लिये जानेका प्रयत्न करत हैं उन जीवोंका प्रवास तो अपने आत्मा के प्रदेशाम समझना चाहिये और उनका निवास शुद्ध चैतन्यस्वरूप राज्यमें समझना चाहिये । अथवा अंतमें समस्त कमाका नाश हो जानेपर सदाके लिये उनका निवास अनंत सुखसे परिपूर्ण मोक्षस्थानमें समझना चाहिये ॥ १४०।। १४१ ॥ दैवस्य मुख्यता कास्ति किंवा पुण्येन जायते ?
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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