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आराहणापणगं (४) कत्थइ चोरविलुत्तो, कत्थइ भुत्तो म्हि सन्निवाएणं । कत्थइ सिंभेण पुणो, कत्थइ हो ! वात-पित्तेहिं ॥१५३।। कत्थइ इट्टविओए, संपत्तीए अणिठ्ठलोयस्स | कत्थइ सज्झसभरिओ उब्वाओ कत्थइ मओ हं ||१५४|| कत्थइ चक्केण हओ, भिण्णो कुंतेहिं लउडपहरेहिं । छिण्णो खग्गेण मओ, कत्थइ सेल्लेण भिण्णो हं।।१५५||
कत्थइ असिघेणूए, कत्थइ मंतेहिं नवर निहओ हं । कत्थइ सीएण मओ, कत्थइ उण्डेण सोसियओ ||१५६||
अरईए कत्थवि मओ, मुत्तनिरोहेण कत्थइ मओ मि | कत्थइ वच्चनिरोहे, कत्थइ य अजिन्नदोसेणं ||१५७||
कत्थवि कुंभीपाए, कत्थइ करवत्तफालिओ निहओ। कत्थइ कडाहडड्ढो, कत्थइ कत्तीसमुक्कत्तो ||१५८|| कत्थइ जलयरगिलिओ, कत्थइ पक्खीविलुत्तसव्वंगो । कत्थइ अवरोप्पपरयं, कत्थ वि जंतम्मि छूढो हं ।।१५९||