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________________ 90 : विवेकविलास एकतः कुरुते वाञ्छां वासवः कीटिकान्यतः। आहारस्य ततो दक्षैर्दानं देयं शुभार्थिभिः ॥17॥ एक ओर जहाँ इन्द्र जैसा देवराज आहारापेक्षा करता है वहीं एक कीट भी आहार की बाञ्छा करता है। इसलिए शुभार्थी दक्षपुरुष को चाहिए कि वह अवश्य दानाचरण करें। क्षुधापीडितमफलं क्षुधाक्लीबस्य जीवस्य पञ्च नश्यन्त्यसंशयम्। सुवासनेन्द्रियबलं धर्मकृत्यं रतिः स्मृति ॥18॥ जो व्यक्ति क्षुधा से पीड़ित हो उसकी उत्तम वासना, इन्द्रियों का बल, धर्म का कृत्य, चित्त की समाधि या एकाग्रता और स्मृति- इन पाँचों चीजों का नाश होता है। अन्यदप्याह - देवसाधुपुर स्वामिस्वजनव्यसनादिषु। ग्रहणे च न भोक्तव्यं सत्यां शक्तौ विवेकिना॥19॥. ..-- विवेकी व्यक्ति को देवता, साधु, पुर स्वामी या नगर अध्यक्ष और अपने स्वजन इनमें से किसी पर भी संकट आ पड़े अथवा सूर्य-चन्द्र ग्रहण होता हो तो भोजन नहीं करना चाहिए। . पितुर्मातुः शिशूनां च गर्भिणीवृद्धोगिणाम्। प्रथमं भोजनं दत्वा स्वयं भोक्तव्यमुत्तमैः॥20॥ उत्तम पुरुषों को पिता, माता, बालक, गर्भवती स्त्री, वृद्ध मनुष्य और रोगीइन सबको पहले भोजन देकर बाद में स्वयं भोजन करना चाहिए। चतुष्पदानां सर्वेषां धृतानां च तथा नृणाम्। चिन्तां विधायं धर्मज्ञः स्वयं भुञ्जीत नान्यथा॥21॥ . धर्म के जानने वाले मनुष्य को अपने समस्त पशुओं की और अपने अधीनस्थ मनुष्यों की सुध लेने के बाद ही भोजन करना चाहिए। अनावुदीर्णे जातायां बुभुक्षायां च भोजनम्। आयुर्बलं च वर्णं च संवर्धयति देहिनाम्॥22॥ . जब जठराग्नि प्रदीप्त हो और खाने की इच्छा हो तभी भोजन करने से मनुष्य का आयुष्य, बल और शरीर की कान्ति बढ़ती है। * याज्ञवल्क्यस्मृति में आया है कि बालकों, विवाहित कन्या, रोगी, गर्भाणी, आतुर, कन्या, अतिथि, सेवक को भोजन करवाने के बाद ही स्वयं भोजन करना चाहिए-बालं सुवासिनीवृद्धगर्भिण्यातुरकन्यकाः । सम्भोज्यातिथिभृत्यांश्च दम्पत्योः शेषभोजनम्॥ (याज्ञवल्क्य. 1, 105)
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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