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एक प्रणयनकर्ता के लिए किसी कृति का सम्बन्ध पिता-पुत्रवत् होता है, मेरा इस ग्रन्थ के साथ सम्पोषक-सा नाता भर है, यह ग्रन्थ मुझे बहुत प्रिय लगा, एक-एक शब्द को मैंने पूर्व-पुकार मानकर, उसको आत्मसात् कर परिभाषित करने
और व्यापक फलक देने का प्रयास किया है। इसमें मेरा कुछ भी नहीं है-भग्रपृष्ठि कटिग्रीवा बद्धमुष्ठिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ यादृशं पुस्तके दृष्ट्वा तादृशं लिखितं मया। यदि शुद्धमशद्धम वा मम दोषोमदीयताम् ॥ इसको प्रकाशन सहित बहुपयोगी बनाने का प्रयास मेरी प्राथमिकता में रहा है। अतएव अधिकांश श्लोकों को एकाधिक मतों के साथ विश्लेषित भी किया गया है और यत्र-तत्र सम्बन्धित विषयों के लिए अन्य उपयोगी ग्रन्थों का सङ्केत भी किया है। इस कार्य में जिन ग्रन्थों का उपयोग हुआ, वे मेरे संग्रह में हैं और उनकी सूची अन्त में दी गई है। उनके प्रकाशकों, सम्पादकों के प्रति आभार।
इसके सम्पादन-अनुवाद, टङ्कण, त्रुटिशोधन आदि कार्यों में मुझे सहधर्मिणी पुष्पा चौहान से यथेष्ट सहायता मिली। दोनों पुत्रियों आयुष्मती अनुभूति चौहान एवं अनुकृति चौहान ने बहुत श्रम किया। अनुज अरविन्द चौहान और पुत्र गौरव चौहान से भी पर्याप्त मदद मिली है। परिजनों को धन्यवाद कहना बहुत लघु लगता है, मैं सबके स्नेहाधीन हूँ। इसके प्रकाशन का दायित्व आर्यावर्त संस्कृति संस्थान के संचालक भाईश्री गोविन्दसिंहजी ने ग्रहण किया है, वे धन्यवादाह है। उनके निरन्तर आग्रह पर मेरा पूरा परिवार इस ग्रन्थ के उद्धार की दिशा में सचेष्ट रहा।।
इसका पाठ उपलब्ध करवाने के लिए मैं विद्यापीठ और कोबा स्थित ज्ञान मन्दिर के संचालकगणों का आभारी हूँ और हाँ, यदि मुनिजी का परिचय जुटाने में प्राकृत भारती, जयपुर के सञ्चालय श्रद्धेय महामहोपाध्याय विनयसागरजी सङ्केत नहीं करते तो सफलता नहीं मिलती, उनके प्रति भी आभार... । विद्वजन इसका समादर करेंगे और अपनी सम्मति प्रदान करेंगे- गच्छतः स्खलनं क्वापि भवेत्येव प्रमादतः। हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः॥
विदुषां वशंवदः 40-राजश्री कॉलोनी, विनायकनगर,
श्रीकृष्ण 'जुगनू' उदयपुर (राजस्थान) 2 अक्टूबर 2006 ई.
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