________________
60 : विवेकविलास
दर्दुरः कृकलासश्च गोधाखुसर्पवृश्चिकाः। सन्तानविभवप्राण राज्योच्छेदश्च तत्फलम्॥ 186॥
जिस पाषाण या काष्ठ की प्रतिमा बनानी हो उस पर पूर्वोक्त रीति से लेप करने के बाद यदि पाषाण में स्वाभाविक रूप से मधु जैसा मण्डल दृष्टिगोचर हो तो उसमें जुगनू पाया जाएगा; यदि भस्म जैसा मण्डल दिखाई दे तो रेत होगी; गुड़ के सदृश मण्डल प्रतीत हो तो भीतर लाल मेंढ़क, आकाशवर्ण जैसा मण्डल हो तो पानी; कपोत के वर्ण जैसा मण्डल हो तो छिपकली; मञ्जीष्ठ जैसा वर्ण हो तो मेंढ़क; रक्त वर्ण का मण्डल हो तो गिरगिट; पीले वर्ण का मण्डल दीख पड़े तो गोह; कपिल वर्ण का मण्डल हो तो चूहा; काले वर्ण का मण्डल हो तो सर्प तथा चित्र-विचित्र मण्डल दृष्टिगोचर हो तो भीतर बिच्छू है- ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार के मण्डल वाले पाषाण या काष्ठ की प्रतिमादि बनाने से कर्ता के सन्तान, लक्ष्मी, प्राण और राज्य का विनाश होता है।
कीलिकाछिद्रसुषिर त्रसजालकसन्धयः। मण्डलानि च गारश्च महादूषणहेतवे। 187॥
उक्त काष्ठ अथवा पाषाण में कील, छिद्र, पोलापन, जीव-जन्तुओं के जाले, सन्धियाँ, मण्डलाकार रेखा अथवा कीचड़-गार हो तो बड़ा दोष समझना चाहिए।
प्रतिमायां दवरका भवेयुश्च कथञ्चन। सदृग्वर्णा न दुष्यन्ति वर्णान्यत्वेऽतिदूषिताः॥ 188॥ .
इति प्रासाद प्रतिमाद्यधिकारः। प्रतिमा के काष्ठ अथवा पाषाण में किसी भी प्रकार की रेखा पड़ी हुई दिखाई दे, वह यदि अपने मूल वस्तु के रङ्ग की जैसी ही हो तो दोष नहीं है किन्तु मूल वस्तु
* इसी प्रकार की मान्यता सर्वप्रथम विष्णुधर्मोत्तरपुराण में भी आई है। तुलनीय है- सगर्भा तां
विजानीयाद् यत्नेन च विवर्जयेत्। माञ्जिष्ठवर्ण संकाशे गर्भे भवति दर्दुरः ॥ पीतके मण्डले गोधा कृष्ण विद्याद्भुजङ्गमम्। कपिले मूषकं विद्यात् कृकलासं तथारुणै। गुडवणे तु पाषाणं कापोते गृहगोधिका।
आपो निस्त्रिंशवर्णाभे भस्मे वर्णे तु वालुका ।। (विष्णुधर्मोत्तर. 3, 90, 11-13) 'शिल्परत्नम्' के रचयिता श्रीकुमार के अनुसार वच्छनाग, हीराकसीस (हराथोथा) और गेरू (हिरमिच) ये तीनों समान भाग लेकर दूध में पीसें। इस लेप को पाषाण पर डालें और एक रात्रि रहने दें। धोने के बाद दोष युक्त पाषाण पर दाग, चिह्नादि उभार आते हैं- तुल्यांश क्षीरिपिष्टैस्तु विषकासीस गैरिकै : । दृषदालिप्य निः शेषमेकरात्रोषितं ततः ॥ प्राक्षालमगर्भात् दोषांश मण्डलैस्तत्र दक्षयेत् । (शिल्परत्वं, पाषाणपरीक्षम्)