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30 : विवेकविलास
अङ्गुलियाँ और उनके पास की दो अङ्गुलियाँ रखकर भ्रकुटी के अन्दर देखने से पाँचों तत्त्वों का ज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार पण्मुखीमुद्रा से यदि पीला वर्ण दिखाई देता हो तो पृथ्वी तत्त्व, श्वेत दिखाई तो जल तत्त्व, लाल दिखाई दे तो अग्नि तत्त्व, काला वर्ण दिखाई दे तो वायु तत्त्व और कुछ भी न दिखाई दे तो आकाश तत्त्व जानना चाहिए।
पीतः कार्यस्य संसिद्धिं विन्दुः श्वेतः सुखं पुनः ।
भयं सन्ध्यारुणो ब्रूते हानिं भृङ्गसमद्युतिः ॥ 41 ॥
उपर्युक्त वर्णानुसार देखते हुए यदि पीला बिन्दु दिखाई दे तो अभीष्ट कार्य की सिद्धि होगी, ऐसा जाने और यदि श्वेत दिखाई दे तो सुख प्राप्ति, लाल दिखाई दे तो भय की उत्पत्ति और भ्रमर जैसा श्याम वर्ण दिखाई दे तो हानि होगी, ऐसा जानना चाहिए ।
जीवितव्ये जये लाभे सस्योत्पत्तौ च वर्षणे । पुत्रार्थे युद्धपृच्छायां गमनागमने तथा ॥ 42 ॥* पृथ्व्यतत्त्वे शुभे स्यातां बह्निवातौ च नो शुभौ । अर्थसिद्धिः स्थिरार्व्यां तु शीघ्रमम्भसि निर्दिशेत् ॥ 43 ॥
व्यक्ति को अपनी आजीविका, विजय, इष्ट लाभ, धान्य की उत्पत्ति, वृष्टि, पुत्रैच्छा, युद्ध सम्बन्धी प्रश्न, गमन और आगमन आदि कार्यों में पृथ्वी तत्त्व और जल तत्त्व को प्रशस्त जानना चाहिए। अग्नि और वायु तत्त्व उपर्युक्त कार्यों में शुभफलप्रदाता नहीं हैं। पृथ्वी तत्त्व शनैः शनैः और जल तत्त्व शीघ्र शुभफल देता है। अथ शरीरसाधनं
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निष्ठीवनेन दद्रुवादेस्ततः कुर्यान्निघषर्णम् ।
अङ्गदार्व्याय पाणिभ्यां वज्रीकरणमाचरेत् ॥ 44 ॥
(प्रात:कालीन दिनचर्या के प्रसङ्ग में ही कहा जा रहा है कि यदि ) शरीर पर
* पवनविजयस्वरोदय में तत्त्वों के प्रवाह को जानने के लिए कहा गया है कि सुबह से ही प्रयास कर स्वरों के प्रवाह का निरीक्षण करना चाहिए। योगी लोग इसीलिए काल को ठगने के लिए यह अभ्यास करते हैं। दोनों हाथों के अङ्गठों को दोनों कानों में, दोनों बीच की अङ्गुलियों को नाक के छेदों में, मुख पर अनामिका और कनिष्ठिका अङ्गुलियों को और आँखों पर तर्जनी अङ्गुलियों को रखना चाहिए। इस प्रकार कार्य करने से पृथ्वी, जल आदि पाँचों तत्त्वों का ज्ञान क्रम से होता हैनिरीक्षितव्यं यत्नेन सदा प्रत्यूषकालतः । कालस्य वञ्चनार्थाय कर्म कुर्वन्ति योगिनः ॥ श्रुत्योरङ्गुष्ठकौ मध्याङ्गुल्यौ नासापुटद्वये । वदनप्रान्तके चान्याङ्गुलिर्दद्याच्च नेत्रयोः ॥ अस्या तनु पृथिव्यादि तत्त्वज्ञानं भवेत् क्रमात् । पीतश्वेतारुणश्यामैर्विन्दुभिर्निरुपाधिकम् ॥ ( स्वरोदय 149 151 )
*तुलनीय - जीवितव्ये जये लाभे कृष्यां च धनकर्मणि । मन्त्रार्थे युद्धप्रश्रे च गमनागमने तथा ॥ (स्वरोदय 178 )