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________________ 274 : विवेकविलास करना चाहिए और सर्वत्र उदासीनता रखकर निश्चल रहना चाहिए। पुण्यार्थमपि नारम्भं कुर्यान्मुक्तिपरायणः। पुण्यपापक्षयान्मुक्तिः स्यादतः समतापरः। 70॥ मुक्ति के लिए प्रयत्न करने वाले पुरुष को पुण्य के लिए भी आरम्भ नहीं करना चाहिए। कारण यह है कि पुण्य और पाप समूल नष्ट हो तभी मुक्ति सम्भव है। अतएव दोनों में समता रखना श्रेयस्कर है। संसारे यानि सौख्यानि तानि सर्वाणि यत्पुनः। न किञ्चिदिव दृश्यन्ते तदौदासीन्यमाश्रयेत्॥1॥ इस संसार में जो कुछ सुख है, वह नहीं जैसा दिखाई देता है। अतएव जीव को उदासीनता ही अङ्गीकार करनी चाहिए। वेदा यज्ञाश्च शास्त्रणि तपस्तीर्थानि संयमः। समतायास्तुलां नैव यान्ति सर्वेऽपि मेलिताः ॥72॥ यदि वेद, यज्ञ, शास्त्र, तपस्या, संयम- इन सब को एकत्रित करें तो भी वे सब समता की बराबरी नहीं कर सकते हैं। एकवर्णं यथा दुग्धं बहुवर्णासु धेनुषु। तथा धर्मस्य वैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं पुनः॥73॥ जिस प्रकार नाना वर्णों की गायों का दूध एक ही वर्ण का होता है, वैसे ही धर्म के बाह्य स्वरूप अलग-अलग दिखाई देते हैं किन्तु उन सब में परमतत्त्व तो एक ही जानना चाहिए। अधुना शङ्का - आत्मानं मन्यते नैकश्चार्वाकस्तस्य वागियम्। जतुनीरन्धिते भाण्डे क्षिप्तश्चोरो मृतोऽथ सः॥74॥ निर्जगाम कथं तस्य जीवः प्रविविशुः कथम् । अपरे कृमिरूपाश्च निश्छिद्रे तत्र वस्तुनि॥75॥ (यह शङ्का है) एक चार्वाक् (नास्तिक) मात्र जीव को नहीं मानता। उसका मत है कि 'मुखादि छिद्रों पर लाख चस्पाकर सुदृढ़, बन्द की हुई कोठी में चोर को रखा था, वह मर गया तो उस छिद्र रहित कोठी में से उसका जीव बाहर कैसे निकला? इसके अतिरिक्त उसके शरीर में कृमिरूप जीव पड़ गए थे, वे किस तरह भीतर गए? उत्तरम् - तथैव मुद्रिते भाण्डे क्षिप्तः शङ्खयुतो नरः। शङ्खात्तद्वादितान्नादो निष्कामति कथं बहिः॥76॥ .
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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