________________
-- 266 : विवेकविलास
.
जिस
अन्तश्चित्तं न चेच्छुद्धं बहिः शौचे न शौचभाक्। सुपक्कमपि निम्बस्य फलं बीजे कटु स्फुटम्॥21॥
यदि हृदय अन्तर से स्वच्छ नहीं हो तो केवल ऊपरी शुद्धता किस कार्य की है, क्योंकि पका हुए नीम के फल का बीज भी कटु ही होता है। ... यस्यात्ममनसोभिन्नरुच्योमैत्री विवर्तते।
योगविधैः समं मित्रैस्तस्येच्छा कौतुकस्य का॥22॥
जिस व्यक्ति की न्यारी-न्यारी रुचियों वाली आत्मा व मन के साथ मैत्री हो, उस साधक को योग में बाधक बनने वाले मित्रों के साथ कौतुक करने की अभिलाषा कहाँ से होती है? योगीजनाः कालेन भक्ष्यते -
कालेन भक्ष्यते सर्वंस केनापि न भक्ष्यते। . अभक्ष्यभक्षको योगी येनासावपि भक्ष्यते॥23॥
काल ही समस्त वस्तुओं का भक्षण करता है परन्तु काल का कोई भक्षण करता। योगी तो उस काल का भी भक्षण करते हैं, इसलिए वे (योगी) अभक्ष वस्तु के भक्षक कहे जाते हैं।
या शक्यते न केनापि पातुं किल पराकला। यस्तां पिबत्यविश्रान्तं स एवापेयपायकः॥24॥
जिसका कोई पान नहीं कर सकते, ऐसी पराकला (ब्रह्मामृत, खेचरी आदि मुद्राओं के सिद्ध होने पर कपाल कुहर से निःस्रत होने वाले अमृत) को योगी हमेशा पीते हैं, इसलिए योगी अपेय वस्तु पीने वाले कहे गए हैं। .
अगम्यं परमं स्थानं यत्र गन्तुं न पार्यते। . तत्रापि लाघवाद्गच्छन्नगम्यगमो मतः॥25॥
जहाँ कोई पहुँच नहीं सकता, ऐसे परमपद रूप अगम्य स्थान को योगी तुरन्त चले जाते हैं, इस अर्थ में वे अगम्यगामी कहलाते हैं।
ब्रह्मात्मा तद्विचारी यो ब्रह्मचारी स उच्यते। अमैथुनः पुनः स्थूलस्ताहक् षण्ढोऽपि यद्भवेत्॥26॥
आत्मा ब्रह्म कहलाता है और ब्रह्म का विचार करने वाला ही सच्चा ब्रह्मचारी कहा जाता है परन्तु काम-भोग को वर्जित करने वाला मनुष्य मात्र स्थूल ब्रह्मचारी
.------------------- * याज्ञवल्क्य का मत है कि सभी कालों में, सभी अवस्थाओं में और सभी स्थानों में मनसा-वाचाकर्मणा भोगादि वृत्तियों से सर्वथा दूर रहने में सहायता करना ही ब्रह्मचर्य व्रत का लक्ष्य है-कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा। सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्य प्रचक्षते॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)