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________________ 234 : विवेकविलास इसी प्रकार चक्षुहीन, एकाक्षी, केकराक्ष, और काकराक्ष को उत्तरोत्तर अधिकाधिक क्रूर जानना चाहिए। भूतादिपीडितस्य दृष्टिमाह - . भूताविष्टस्य दृष्टिः स्यात्प्रायेणोर्ध्वविलोकिनी। मीलिता मुद्गलार्तस्य देवतात्तस्य दुस्सहा ॥ 351॥ भूतादि ग्रस्थ मनुष्य की दृष्टि प्रायः ऊँची देखने वाली होती है जबकि मुद्गलात मनुष्य की आँखें निमिलित और देव-भावाविष्ट मनुष्य की आँखें बहुत तेज होती हैं। शाकिनीभिर्गृहीतस्याधोमुखी च भयानका। रेपर्लातस्य भीरुः स्याच्छून्याधिकतरं चला॥ 352॥ शाकिनी ग्रस्त मनुष्य की दृष्टि नीचे देखने वाली और भयानक होती है। रेपले से पीड़ित मनुष्य की दृष्टि शून्य, बहुत चञ्चल और भीरु होती है। . - अरुणा श्यामला वापि जायते वातरोगिणः। पित्तदोषवतः पीता नीला च शुक्रपिच्छवत्॥353॥ .: श्रेष्मलस्य तथा पाण्डुर्मिश्रदोषस्य मिश्रिता। दृष्टेः प्रतिदिनं भेदा भवन्त्येवमनेकधा॥ 354॥ जो व्यक्ति वातरोग से पीड़ित हो उसकी दृष्टि लाल और श्याम वर्ण की होती है। पित्तरोग से पीड़ित की पाली और तोते के पक्ष जैसी की होती है। कफ से पीड़ित मनुष्य की दृष्टि मिश्र कही जाती है। इस प्रकार से नित्यप्रति अनेक प्रकार की दृष्टि के भेद देखने में आते हैं। अथ चक्रमणक्रमः.. उद्यमेऽसत्यपि प्रायो न व्रजेन्निष्फलं वचित्। मुक्त्वा ताम्बूलमेकं च भक्ष्यमन्यन्न गच्छता॥ 355॥ (अब गमनागमन का नियम कहा जा रहा है) समझदार मनुष्य को उद्यम न हो तो भी बिना प्रयोजन के अन्यत्र नहीं जाना जाना चाहिए और मार्ग में आते-आते एक ताम्बूल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं खाना चाहिए। युगमात्रान्तरन्यस्य दृष्टिः पश्यन्पदं पदम्। रक्षार्थ स्वशरीरस्य जन्तूनां च सदा व्रजेत्॥ 356॥ व्यक्ति को मार्ग में आते-जाते अपने शरीर और दूसरे प्राणियों की रक्षा के लिए हमेशा गाड़ी के जूए जितनी आगे दृष्टि रखकर पाँव-पाँव देखते हुए चलना चाहिए। शालूररासभोष्ट्राणां वर्जनीया गतिः सदा। । गजहंसवृषाणां तु सा प्रकामं प्रशस्यते॥357॥
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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