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________________ 226 : विवेकविलास शैवाः पाशुपताश्चैव महाव्रतधरास्तथा। तुर्याः कालमुखो मुख्या भेदा एते तपस्विनाम्॥ 303 ॥ तापसों में 1. शैव, 2. पाशुपत, 3. महाव्रतधर और 4. कालमुख- ये चार प्रकार के तपस्वी कहे गए हैं। अथ नास्तिकमतम् - पञ्चभूतात्मकं वस्तु प्रत्यक्षं च प्रमाणकम्। नास्तिकानां मते नान्यदात्मामुत्र शुभाशुभम्। 304॥ (अब नास्तिक मत के विषय में कहा जा रहा है) नास्तिक मत के अनुसार संसार की समस्त वस्तुएँ पञ्चभूत से उत्पन्न हैं । एकमात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है और शेष आत्मा, परलोक, पुण्य-पाप इत्यादि की बातें व्यर्थ हैं।" प्रत्यक्षमविसंवादि ज्ञानमिन्द्रियगोचरः। लिङ्गतोऽनुमितिधूमादिव वह्नेरवस्थितिः॥ 305॥ अनुमानं त्रिधा पूर्वशेषसामान्यतो यथा। वृष्टेः सस्यं नदीपूरावृष्टिरस्ताद्रवेर्गतिः ।। 306॥ उनका मत है कि जो मिथ्या न हो, ऐसा ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है। इन्द्रियों को जो अपने विषय का ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष में समाहित है। जैसे धूम्र से अग्नि की कल्पना की जा सकती है, वैसे किसी हेतु पर से कल्पना करना अनुमान कहा जाता है। उनके लिए 1. पूर्वानुमान, 2. शेषानुमान और 3. सामान्य अनुमान- ये तीन प्रकार के अनुमान हैं। इनमें से जैसे वृष्टि पर्याप्त हो तो 'भविष्य में पैदावार अच्छी होगी' इस प्रकार की कल्पना हो तो 'पूर्वानुमान' कहा जाता है। नदी का पूर देखकर वृष्टि की कल्पना करना 'शेषानुमान' कहा जाता है। इसी प्रकार सूर्यास्त देखकर भास्कर की गति की कल्पना करना 'सामान्य अनुमान' कहा जाता है। ख्यातं सामान्यतः साध्यसाधनं चोपमा यथा। स्यागोवद्वयः सास्ना दिमत्वमुभयोरपि॥ 307॥ इसी प्रकार सादृश्य से साध्यवस्तु सिद्ध करनी 'उपमिति' कहलाती है। जैसे बैल और गवय (गाय जैसा जङ्गली जानवरी, रोज) दोनों के सास्नादि अवयव --------- * उक्त दोनों ही श्लोक षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में (पृष्ठ 78) उद्धृत है। **षड्दर्शनसमुच्चय में आया है-लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निवृतिः । धर्माधर्मों न विद्येते न फलं पुण्यपापयोः ॥ एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे वृकपदं पश्य यद्वदन्त्यबहुश्रुताः । पिब खाद च चारुलोचने यदतीतं वरगात्रि तन्न ते। न हि भीरु गतं निवर्तते समुदयमात्रमिदं कलेवरम्॥ पृथ्वी जलं तथा तेजो वायुर्भूतचतुष्टयम्। आधारो भूमिरेतेषां मानं त्वक्षजमेव हि ॥ पृथ्व्यादिभूतसंहत्या तथा देहपरीणतेः। मदशक्तिः सुराङ्गेभ्यो यद्वत्तद्वच्चिदात्मनि ॥ (षड्दर्शन. लोकायतन. 84-84)
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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