SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 186 : विवेकविलास यमांशे वर्जिताह - यमांशे गृहिमृत्युः स्यान्मृत्युः सप्तमतारके। निस्तेजाः पञ्चमे तारे विपत्तारे तृतीयके॥89॥ यदि गृह के लिए यमांश का प्रयोग हो जाए तो गृहपति के निधन की आशंका जाननी चाहिए। इसी प्रकार तारा विचार करते हुए देखें कि यदि सातवीं (नैधनी) तारा हो तो भी मृत्युकारक है जबकि पाँचवीं (प्रत्यरि) तारा हो तो विपत्तिप्रद होती है। बहुदोषकरं तुलातालुद्वारवेधमाह - न्यूनाधिक्ये च पट्टानां तुलावेध उपर्यधः। एकक्षणे नीचोच्चत्वे पट्टानां तालुवेधता॥१०॥ भूवैषम्यात्तले वेधो द्वारवेधश्च घोटके। एकस्मिन्सम्मुखं द्वाभ्यां पुनर्नव कदाचन॥91॥ भवन के ऊपर अथवा नीचे की पट्टियाँ (पूर्वकाल में काष्ठ पटियाँ, बाद में प्रस्तर पटियाँ) यदि संख्या में न्यूनाधिक्य हो तो तुलावेध कहा जाता है। किसी एक खण्ड, तल में यदि पट्टियें ऊँचे-नीचे हो तो तालुवेध कहा जाता है। यदि भूमि इकसार नहीं होकर निम्नोच्च हो तो तलवेध और एक ही घोटक सम्मुख हो तो द्वारवेध होता है किन्तु यदि दो घोटक सम्मुख हो ता यह वेध नहीं होता है। वास्तुमर्मदोषाह - वास्तोवृक्षसि शीर्षे च नाभौ च स्तनयोर्द्वयोः । गृहस्यैतानि मर्माणि नैषु स्तम्भादि सूत्रयेत्॥ 92॥ वास्तु न्यास के साथ यह सोचना चाहिए कि नक्शे के अनुसार वास्तु के वक्ष -------------------------- मत्स्यपुराण के 255वें अध्याय में 24 श्लोकों में वेधों व उनके निवारणोपायों का वर्णन आया है। 'वास्तु उद्धारधोरणी' में गृहादि में उन्नीस प्रकार के वेधों का वर्णन हुआ है- तलवेध, तालवेध, दृष्टिवेध, तुलावेध, बाधावेध, स्तम्भवेध, मर्मवेध, मार्गवेध, वृक्षवेध, छायावेध, जलस्थानवेध, द्वारवेध, स्वरवेध, कीलवेध, कोणवेध, भ्रमवेध, दीपालयवेध, कूपवेध, देवस्थानवेध। ये वेध त्याज्य हैं। यदि कोई वास्तु निश्चित लक्षणों से हीन भी हो, किन्तु वहाँ पर मन प्रसन्न होता हो तो वहां दोष नहीं जाने क्योंकि ऐसा स्थान धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष का साधक होता है- तलवेधस्तालवेधो दृष्टिवेधस्तथैव च। तुलावेधस्तथा बाधा स्तम्भवेधोतिस्फुटः ॥ मर्मवेधो मार्गवेधो वृक्षवेधस्तथा पुनः। छायावेधोदकद्वारश्च स्वरवेधस्तथैव च॥ कीलवेधस्तथा कोणा भ्रमवेधस्तथैव च। दीपालयं चकूपवेधश्च देवस्थान परित्यजेत् ॥ वास्तुलक्षण हीनेऽपि यत्र वैराच्यते मनः । तत्र दोषो न विद्याच्च धनकामार्थमोक्षदम्॥ (उद्धारधोरणी 2, 8-11)
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy