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________________ अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लासः : 183 आक्रन्दं विपुलं चैव विजयं चेत्यमूर्भिदाः। गृहस्थ स्वस्य नामोऽपि सदृशं च भवेत्फलम्॥81॥ (अब सोलह प्रकार के गृहों के नाम कहे जा रहे हैं) 1. ध्रुव (स्थिरता दायक), 2. धन्य (यश प्रदाता), 3. जय (जय प्रदाता), 4. नन्द (आनन्द प्रदाता), 5. खर (स्नेहभञ्जक), 6. कान्त (सौन्दर्योत्पादक),7. मनोरम (मन में प्रीति उत्पादक), 8. सुमुख (अच्छे मुँह का), 9. दुर्मुख (बुरे मुंह वाला), 10. क्रूर (भयोत्पादक), 11. सुपक्ष (परिवार अभिवर्धक), 12. धनद (धन प्रदाता), 13. क्षय (नाशकारक), 14. आक्रन्द (शोक उत्पादक), 15. विपुल (वृद्धि कर्ता), और 16. विजय (बहुत जय दायक)- ऐसे गृह के सोलह भेद है। गृह और अपने नाम के भी इन नामों के अनुसार ही फल जानना चाहिए। प्रस्तारक्रमानुसारेण गृहपरिकल्पनं - यो गुरूणां चतुर्णा स्यात्प्रस्तारश्छन्दसां कृतः। षोडशान्त इमे भेदाः स्युस्तन्नामान्यलिन्दकैः॥ 82॥ चार गुरुवर्ण के जिस सोलह प्रकार के प्रस्तार क्रम का छन्दशास्त्र में वर्णन किया गया है, वैसे ही गृह के सोलह भेद होते हैं और उपर्युक्त सोलह नाम अलिन्दक (द्वार के आगे के चौक) पर से होते हैं। गृहार्थ प्रस्तारचक्र प्रस्तारभेद _ गृहनाम द्वारनाम ध्रुव ऊर्ध्वमुख 1555 पूर्वमुख 555 जयसंज्ञक दक्षिणद्वार ।।55 नन्दसंज्ञक पूर्वदक्षिणद्वार ____5. 55 15 खराभिध पश्चिमद्वार 5555 धन्य * वृद्धवशिष्ठ ने इन गृहों का फलाफल इस प्रकार बताया है- ध्रुवसंज्ञं गृहं त्वाद्यं धनधान्यसुखप्रदम्। धान्यं धनप्रदं नृणां जयं स्याद्विजयप्रदम् ॥ नन्दं स्त्रीहानिदं नूनं खरं सम्पद्विनाशनम्। पुत्रपौत्रप्रदं कान्तं श्रीपदं स्यान्मनोरम् ॥ सुवक्त्रं भोगदं नूनं दुर्मुखं विमुखप्रदम्। सर्वदुःखप्रदं क्रूरं विपक्षं शत्रुभीतिदम्॥ धनदं धनदं गेहं क्षयं सर्वक्षयप्रदम् । आक्रंदं शोकजननं विपुलं श्रीयशःप्रदम्। विपुलं नामसदृशं धनदं विजयाभिधम्॥ (वशिष्ठसंहिता 39, 100-103) **श्रीपति का मत है कि भवन के लिए छन्दशास्त्रानुसार प्रस्तारक्रम समझना चाहिए। इसके लिए पहले चार गुरु (5555) लिखें, तदोपरान्त प्रथम गुरु के नीचे लघु लिखें और वामे भाग में गुरु लिखें तथा आगे जैसा पूर्व में लिखा गया है, वैसा ही लिखें (1555)। इसी प्रकार सबके लघु (।।।।) होने तक लिखें तो प्रस्तारक्रम तय हो जाता है- स्थापयेल्लघुमघो गुरोः परं स्याद्यथोपरि तथैव पूरयेत्। पश्चिमं च गुरुभिः पुनः पुनः सर्वलध्ववधिरित्ययं विधिः ॥ (रत्नमाला 17, 9)
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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