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146 : विवेकविलास
षष्ठे तूषचिनोत्युच्चैरात्मनः पित्तशोणिते । सप्तमे पूर्वमानात्तु पेशी पञ्चशतीगुणा ॥ 221 ॥
उक्त गर्भ छठे मास में उसके पित्त और रक्त को बढ़ता है और सातवें मास में पूर्व कथित पेशी या थैली तौल में पहले से पाँच सौ गुनी हो जाती है। करोति नाभिप्रभवां नाडीसप्तशती तथा ।
नवसङ्ख्याः पुनस्तत्र धमनी रचयत्यसौ ॥ 222 ।।
इसके बाद, वह गर्भ वृद्धि को प्राप्त करता हुआ नाभि से निकलने वाली 700 नाड़ियाँ और 9 धमनियाँ उत्पन्न करता है।
नाड्यः सप्तशतानि स्यूर्विंशत्यूनानि योषिताम् । भवेयुः षंढदेहे तु त्रिंशदूनानि तान्यपि ॥ 223 ॥
उक्त सात सौ नाड़ियों में से स्त्री के शरीर में 680 और नपुंसक के शरीर में 670 नाड़ियाँ होती है अर्थात् पुरुष से स्त्री के शरीर में 20 और नपुंसक के शरीर में 30 नाड़ियाँ कम होती हैं ।
नव स्त्रोतांसि पुंसा स्युरेकादश तु योषिताम् । दन्तस्थानानि कस्यापि द्वात्रिंशत्, पुण्यशालिनः ॥ 224 ॥
पुरुष के शरीर में नौ स्त्रोत (द्वार) होते हैं और स्त्री के शरीर में ग्यारह । इसी प्रकार किसी-किसी भाग्यशाली पुरुष के बत्तीस दन्त होते हैं।
सन्धीन् पृष्ठकरण्डस्य कुरुतेऽष्टादश स्फुटम् । प्रत्येकमन्त्रयुग्मं च व्यामपञ्चकमानकम्॥ 225 ॥
जीव पृष्ठकरण्ड (पीठ की अस्थियों) की 18 सन्धियाँ करता हैं और प्रत्येक जीव दोनों मिलकर पाँच वाम जितनी लम्बी आँत को जोड़ता है।
करोति द्वादशाङ्गे च पांशुलीनां करण्डकान् ।
तथा पांशुलिकाषट्क मध्यस्थः सूत्रधारवत् ॥ 226 ॥
गर्भ में स्थित जीव सूत्रधार की तरह शरीर में बारह पसली के करण्डक और छह पसलियों का निर्माण करता है।
लक्षानां रोमकूपानां कुरुते कोटिमत्र च ।
अर्धतुर्या रोमकोटीस्तिस्त्रः सश्मश्रुमूर्धजाः ॥ 227 ॥
गर्भ में स्थित जीव करोड़ में एक लाख कम अर्थात् 99 लाख रोमकूप और सिर
के तथा दाड़ी, मूँछ के सब मिलाकर कुल साढ़े तीन करोड़ रोम उत्पन्न करता है। अष्टमे मासि निष्पन्न प्रायः स्यात्सकलोऽप्यसौ । तथौजोरूपमाहारं गृह्णोत्येष विशेषतः ॥ 228 ॥