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130 : विवेकविलास - अङ्गनासहव्यवहारविचारं
गुरुस्वामिसुच्छिष्य स्वजनाङ्गनया सह। ... मातृजामिसुतात्वेन व्यवहर्तव्यमुत्तमैः ।। 130॥ . श्रेष्ठ पुरुषों को अपने गुरु, स्वामी, मित्र, शिष्य और सम्बन्धियों की स्त्रियों के साथ मां, बहन, और पुत्री के समान व्यवहार करना चाहिए। नियम यह है कि जो अपने से बड़ी हो वह मातृतुल्य, बराबर वय की हो वह बहनतुल्य और छोटी हो वह पुत्री के समान होती है।
सम्बन्धिनी कुमारी च लिङ्गिनी शरणागता। वर्णाधिका च पूज्यत्व सङ्कल्पेन विलोक्यते॥ 131॥ ..
श्रेष्ठ पुरुषों को अपनी सम्बन्धी, कुमारी, साध्वी या योगिनी आदि तथा शरणाश्रित और अपने से उच्च वर्ण की स्त्रियों को सदा ही पूज्य मानना चाहिए। त्याज्यास्त्रियाः
सदोषां बहुलोभां च बहुग्रामान्तरप्रियाम्। अनीप्सितसमाचारां चञ्चलां च रजस्वलाम्॥ 132॥ अशौचां हीनवृत्तां चातिवृद्धां कौतुकप्रियाम्। अनिष्टा स्वजनद्विष्टां सगर्वां नाश्रयेस्त्रियम्॥ 133॥
अत्यधिक दोष वाली, अति लोभी, बस्ती-बस्ती घूमने वाली, दुराचारिणी, चञ्चल, रजस्वला, अपवित्र, हीन वृत्ति वाली, बहुत वृद्ध, नाटक आदि कौतुक देखने में बहुत तत्परता दिखाने वाली, अनचाही, स्वजन से द्वेष रखने वाली और अहङ्कारी स्त्री को कभी अङ्गीकार नहीं करना चाहिए। .
परस्त्री विधवा भत्त्यक्ता त्यक्तव्रतापि च। राजकुलप्रतिवद्धा विवा यत्रतो बुधैः॥ 134॥
बुद्धिमान पुरुष के लिए (तत्कालीन परम्परानुसार) यह उचित है कि जीवित पति की स्त्री, विधवा, परित्यक्ता, आदरपूर्वक किए हुए व्रत को भङ्ग करने वाली और राजद्वार में आने-जाने वाली स्त्रियों को विर्जित समझे।
दुर्गदुर्गतिदूतीष वैराचित्रकभित्तिषु। साधुवादद्रुशस्त्रीषु परस्त्रीषु रमेत न॥ 135॥
बन्दीगृह अथवा नारकीय गति को बुला ले जाने वाली दूती जैसी, वैररूप चित्र का अङ्कन करने में दीवार-माध्यम के समान और यशरूपी वृक्ष के छेदन में शस्त्र जैसी स्त्रियों में आसक्त नहीं रहना चाहिए। अथोद्वाहवसरेप्रतिज्ञात्वचनपालननिर्देशं -