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________________ ३५८ अध्यात्म-कल्पद्रुम की सेना उनके पुत्र के दुःख संबंधी युद्ध की बात करती हुई निकली जिसे सुनकर उनका मन विचलित हो गया और ध्यान मुद्रा में खड़े खड़े वह मन से पुत्र की रक्षा के लिए शत्रुओं से युद्ध करने लगे। इधर श्रेणिक राजा महावीर प्रभु के पास पहुंचकर प्रसन्नचंद्र के बारे में पूछते हैं तो प्रभु कहते हैं कि यदि वह तपस्वी अभी काल करे तो सातवीं नरक में जाय । थोड़ी देर बाद राजा के फिर पूछने पर प्रभु ने कहा कि अनुत्तर विमान में देव हो, इतने में देव दुंदुभी बजी और राजा ने प्रभु से उसका कारण पूछा तो प्रभु ने कहा कि प्रसन्नचंद्र राजर्षि को केवल ज्ञान हो गया है। राजा श्रेणिक को बहुत आश्चर्य हुवा तब वीर प्रभु ने कहा कि उस तपस्वी का मन जब वैर वृत्ति रख रहा था तब नरकगामी था पश्चात पश्चाताप करता हुवा स्थिति स्थापक हुवा और शुक्ल ध्यान ध्याने से उसे तुरंत केवल ज्ञान हुवा। इस तरह से मन की प्रवृति नरक का और मन को निवृत्ति मोक्ष का कारण बनी। मन को अप्रवृत्ति-स्थिरता मनोऽप्रवृत्तिमात्रेण, ध्यानं नकेंद्रियादिषु । धर्म्यशक्लमनःस्थैर्यभाजस्तु ध्यायिनः स्तुमः ।। ४ ॥ अर्थ-मन की प्रवृत्ति न करने मात्र से ही ध्यान नहीं होता है, जैसे कि एकेन्द्रिय आदि में (उनके मन न होने से मन की प्रवृत्ति नहीं होती)। जो ध्यान करने वाले प्राणी धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के कारण मन की स्थिरता के भाजन होते हैं उनकी हम स्तुति करते हैं ॥४॥ अनुष्टुप
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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