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________________ मिथ्यात्वनिरोध-संवरोपदेश ३५७ एक भी मछली को दांतों के छेद में से निकलने न देती सबको हड़प कर जाती"। सोचने की बात है कि इसका शरीर चावल जितना है अतः भोजन कितना थोड़ा चाहिए परन्तु लालसा व वैर वृत्ति कितनी ! इसीके परिणाम से वह मरते ही सातवीं नरक मे ३३ सागरोपम का आयुष्य लेकर जाती है। उसका जन्म पलकों में होता है, यह गर्भज जीव होने से मन वाली होती है व इसका अन्तर्मुहूर्त का आयुष्य होता है। इतने कम काल जीवित रहंकर दुर्भावना से वह कितना बड़ा नारकी का आयुष्य बांध लेती है अोह मन का संवर न करने से कितना भयंकर परिणाम होता है इसी तरह से जो मनुष्य एक गन्ने के लिए पूरा खेत जलाते हैं या थोड़े से दोष के लिए गांव को जलाने की भावना रखते हैं या दुर्भावना द्वारा किसी के लिए घात तक सोचते हैं उनकी भी यही दशा होती है। मन का वेग-प्रसन्नचंद्र का दृष्टांत प्रसन्नचंद्रराजर्षेमनःप्रसरसंवरौ । नरकस्य शिवस्यापि, हेतुभूतौ क्षणादपि ॥ ३ ॥ अर्थ-क्षण भर में प्रसन्नचंद्र राजर्षि को मन की प्रवृत्ति और निवृत्ति अनुक्रम से नरक और मोक्ष का कारण हुई अनुष्टुप विवेचन–प्रसन्नचंद्र नामक राजा वैराग्यवासित होकर एक स्थान में ध्यानारूढ़ खड़े थे पास में होकर श्रेणिक राजा
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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