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________________ यतिशिक्षा उनके अंदर का शील, जैनत्व का गौरव एवं प्रभु महावीर द्वारा उपदिष्ट आचार नष्ट हो जाएगा। पाखण्ड, षड्यन्त्र, व्यभिचार व अनाचार के लिए यह भेष उपयुक्त गिना जायगा अतः इस उत्तम वेष का अपमान एवं दुरुपयोग होता हुवा बचाना चाहिए, नहीं तो भयंकर दुष्परिणाम होगा। परीषह सहन-संवर शीतातपाद्यान्न मनागपीह, परीषहांश्चेत्क्षमसे विसोढुम् । कथं ततो नारकगर्भवासदुःखानि सोढासि भवांतरे त्वम् ॥३०॥ अर्थ जब तू इस भव में जरासी सर्दी गर्मी आदि परीषह सहने में समर्थ नहीं है तो फिर दूसरे भव में नरक के या गर्भवास के दुःखों को कैसे सहन करेगा ? । ३० ॥ उपजाति विवेचन—साधु जीवन में कितने ही प्रकार के अनुकूल व प्रतिकूल उपसर्ग- (कष्ट) आते हैं उनको परिषह कहते हैं जिनको शांति से सहना साधु का धर्म है। यदि साधु मार्ग स्वीकार करके तू भूख, प्यास, सर्दी गर्मी आदि परीषह को न सह सकेगा तो आते भव में होने वाले नरक के दुःखों को या गर्भवास की पीड़ाओं को कैसे सह सकता है ? प्रतिकूल संयोगों में द्वेष और अनुकूल संयोगों में राग को त्यागना और इन दोनों भावों से बंधते हुए आते हुए कर्मों को रोकना ही संवर है। यदि तू परीषहों को सहता है तो संवर करता है जो मोक्ष का एक साधन है । यदि प्रसन्नतापूर्वक इन परीषहों ३८
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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