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अध्यात्म-कल्पद्रुम की इच्छा वाला भी तू संयम की शोभा में प्रयत्न क्यों नहीं करता है) ? ॥ २६ ॥
विवेचन–प्रायः अपने या अपने गुरु के नाम से ज्ञान मंदिर, पाठशाला, गुरुकुल आश्रम, या उपाश्रय बनवा कर उनमें तैल चित्र लगवाने का रिवाज बढ़ता जा रहा है। अपना चित्र बनवाते समय बढ़िया चादर, उत्तम उत्तरीय व सुंदर पटठों वाले आगम ग्रंथों का उसमें प्रदर्शन किया जाता है
और नीचे द्रव्य खर्चने वाले का नाम भी अपने नाम के साथ लिखा जाता है इस तरह से परस्पर नामना से तुझे जो यश होता नजर आता है वह भी परिग्रह की मूर्छा में सम्मिलित है । वैसी बाह्य शोभा को छोड़कर संयम की शोभा को बढ़ा जिससे तुझे मोक्ष प्राप्त हो सके । जो धर्म के नाम पर या धर्म का वेश धारण करके भी म्याना, पालकी या घोड़ा गाड़ी मोटर रखते हैं उनकी दुर्दशा का वर्णन तो करना ही क्या ? खेद का विषय तो यह है कि अब कई नाम के साघुत्रों में रेल या मोटर में बैठना शुरु कर दिया है जब कि वेष, अोघा, पात्रे पूर्ववत ही रखे हुए हैं। यह प्रवृत्ति पतन की ओर ले जाने वाली है, अधःपतन का यह सूक्ष्म छिद्र उनके संयम घट को खाली कर देगा। इस प्रकार की वस्तुएं (मोटर आदि) रखने से स्वामीपन का अभिमान और उनको संभालने या चलाने में जीवहिंसा, परिग्रह आदि का महादोष प्रत्यक्ष ही है। समाज ऐसी शिथिलता को बरदाश्त करता जाएगा तो धीरे धीरे साधुओं का वेष तो कायम रह जायगा लेकिन