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________________ २६० अध्यात्म-कल्पद्रुम कुछ भी प्रयत्न नहीं करता है उसका कारण तीन लोक को जीतने वाले मोह नामक शत्रु की अकथनीय दुष्टता होनी चाहिए अथवा वह नरपशु पूर्व में वैसी बांधी हुई आयु के कारण से अवश्य दुर्गति में जाने वाला होना चाहिए । शार्दूलविक्रीडित विवेचन-आत्मा का शत्रु रूप मोह राजा अपना साम्राज्य फैलाकर समस्त संसार को प्रमाद मदिरा का पान कराकर नचाता है। उसने साधारण लोगों को तो पागल बना ही दिया है परन्तु तुझ जैसे त्यागी व ज्ञानी अपरिग्रही को भी नहीं छोड़ा है तू भी उसके पंजे में फंस गया है, अथवा तूने पहले ऐसे कर्म किए हैं कि जिनसे तू अवश्य ही दुर्गति में जाने वाला है, क्योंकि इतना त्याग करने पर भी एवं शास्त्राभ्यास करने पर भी तुझे मोह के बाण लग रहे हैं, अतः उनका जहरी असर तेरी तपस्या क्रिया व त्याग को क्षीण कर देता है अर्थात तू भी साधारण जनता की तरह से विषय वासना, मग्न हुवा, ममता और अहंकार को त्याग नहीं सका है। यति यदि सावध आचरण करता है तो उसमें मुषोक्ति का भी दोष है उच्चारयस्यनुदिनं न करोमि सर्व, सावधमित्यसकृदेतदथो करोषि । नित्यं मूषोक्तिजिनवंचनभारितात्तत्, सावद्यतो नरकमेव विभावये ते ॥ ११ ॥ " अर्थ-तू हमेशा रात और दिन मिलाकर नौ बार करेमिभंते का उच्चारण करता है कि मैं सावध काम नहीं करूंगा
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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