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अथ द्वादशः देवगुरुधर्मशुद्धयाधिकारः
इस अध्याय में शुद्ध देव, गुरु धर्म का स्वरूप बतलाया गया है।
गुरुत्व की मुख्यता तत्त्वेषु सर्वेषु गुरुः प्रधानं, हितार्थधर्मा हि तदुक्तिसाध्याः। श्रयंस्तमेवेत्यपरीक्ष्य मूढ, धर्मप्रयासान् कुरुषे वृथव ॥१॥ __अर्थ-सर्व तत्त्वों में गुरु, मुख्य है, हितकारी सभी धर्म उनके कथनानुसार ही साधे जा सकते हैं। हे मूर्ख ! उनकी परीक्षा किये बिना यदि तू उनका आश्रय लेगा तो तेरे (धर्म के लिए) किये गए सभी प्रयास निष्फल होंगे ॥१॥
उपजाति विवेचन-गुरु महाराज सभी तरह का ज्ञान कराते हैं, देव और धर्म की पहचान भी वही कराते हैं अतः गुरु करने से पूर्व उनके गुण दोष जानने आवश्यक हैं जिनमें भी मुख्य कसौटी यह है कि वे कंचन कामिनि के त्यागी हैं कि नहीं क्योंकि गुरु बिना ज्ञान नहीं है । कहा है कि गुरु कीजे जानकर पानी पीजे छानकर । अतः गुरु की परीक्षा प्राव