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________________ धर्मशुद्धि २४७ दूर रहा उसका अस्तित्व ही नष्ट हो जाता है वैसे ही गुणों को खुला करने से लाभ तो कुछ नहीं होता है वरन उन गुणों से मिलने वाला पुण्य ही नष्ट हो जाता है। यश या कीर्ति सुनने से प्रसन्नता जरूर होती है जो कि मन को खुश करती है परन्तु आत्मा की तो हानि ही होती है। प्रशंसा सुनने का आदो हुआ पुरुष प्रायः ऐसा ही काम करेगा जिसे लोग देखते रहें जब जब वह जरा सा भी सत्कार्य करेगा तो दिखावे के साथ ही करेगा, बड़े आडंबर से व धमधाम से करेगा और चापलूसों या खुशामदखोरों की संगति में करेगा जब कि सच्ची बात कहने वाले उससे दूर रहेंगे, अतः उसके दोष कहने वाला कोई न रहेगा। परिणामतः उसका पतन होगा । स्वगुण प्रशंसा से हानि ही होती है लाभ कुछ भी नहीं है। गुण पर मत्सर करने वाले की गति तपःक्रियावश्यकदानपूजनैः, शिवं न गंता गुणमत्सरी जनः । अपथ्यभोजी न निरामयो भवेत्सायनैरप्यतुलैर्यदातुरः ॥११॥ अर्थ-गुण पर मत्सर करने वाला प्राणी तपश्चर्या, आवश्यक क्रिया, दान और पूजा से भी मोक्ष में नहीं जाता है । जैसे बीमार मनुष्य कुपथ्य करता हो तो चाहे जैसे रसायन सेवन करने से भी वह स्वस्थ नहीं हो सकता है ॥११॥ वंशस्थविल . • विवेचन—जैसे कोई बीमार, उत्तम भस्मों का सेवन करता हुआ भी गुप्त रूप से अपथ्य करता हो, परहेज नहीं
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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