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वही पर्याप्त है, यह जानते हुए भी श्रीमोतीचंद भाई ने भावार्थ में अपनी विचारधारा प्रस्तुत की है और मैंने भी वैसा ही दुःसाहस किया है । ग्रन्थ में सच्चे गुरू को सिंह की उपमा दी है जबकि कुगुरु को सियार बताया है । मोतीचंद भाई के लेखन काल को आज लगभग ५० वर्ष होगए हैं । इस समय में और उस समय में बहुत अन्तर पड़ गया है। इस अर्ध-शताब्दी में जैनसमाज, जैनाचार्य और जैन साघु-यति आदि त्यागी वर्ग में बड़ा परिवर्तन होगया है। समाज के कर्णधार कुम्भकर्णी निद्रा में सो रहे हैं, उन्हें जागृत करने वाले जैनाचार्य ही कुसंप के वातावरण में पनप रहे हैं, तथा द्वेषाग्नि से दग्ध हो रहे हैं अतः समयोचित शब्दों में जो कुछ मैंने निवेदन किया है उसका असर यदि उनपर हुआ तो समाज के सद्भाग्य जागे जानिये ।
सच्ची बात कहने व लिखने वाला प्रायः शत्रु गिना जाता है तथा उसके प्रति विपरीत प्रचार किया जाता है जैसा कि मोतीचन्द भाई के विरुद्ध भी मैंने कहीं-कहीं पढ़ा है। यही तो सच्चे व झूठे की पहचान की कसौटी है। जो सच्चा आत्मार्थी है, वह वास्तविक बात पर खिन्न नहीं होगा वरन् अपने आपको सुधारने का प्रयत्न करेगा परन्तु जो बाहर से और तथा अन्दर से और है वह अपनी कुत्सितता का प्रदर्शन करने के लिए जो कुछ अनुचित न करे करावे वह थोड़ा है। इसके ज्वलंत व प्रत्यक्ष प्रमाण समाज के समक्ष हैं । समाज छिन्न भिन्न हो रहा है।
ग्रंथकर्ता की भावना शुद्ध थी, वे सभी का हित चाहते थे अतः उन्होंने ऐसे उपयोगी ग्रन्थ की रचना की थी। उसी