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( ८४ ) शतपदी भाषांतर. के काष्टनी शय्या, परघरभिक्षा, हीलना निंदना खिंसना गर्हणा वगेरा परिभवनुं सहन, गामोगाम फरवू, बावीश परीसह सहेवाइत्यादि कराय छे ते अर्थने तेणे आराध्यु.
(८) उत्तराध्ययनचूर्णिमां लख्युं छे के मुनिए विभूषा पाछल नहि लागवं. कारण के विभूषितशरीरवालो स्त्रीयोने अभिलषणीय थाय छे.
(९) निशीथचूणिमा लख्यु छे के स्नान करतां छकायनी विराधना थाय छे, स्नाननी देव पडी रहे छे, अहंकार थाय छ, प. रीसहथी बीकण थई जवाय छे, अने लोकमां अविश्वास थाय छे, माटे उत्सगै स्नान नहि करवं. बीजापदे ग्लानमुनि चिकित्सार्थे यतनाए स्नान करी शके. तथा लांबो मार्ग पसार करी आवेल मुनि पण यतनाए स्नान करी शके. तेमज अवमकाळ आवतां के ज्यारे उज्वळवेषवाळानेज भिक्षा मळी शके एम होय तो तेवा वखते पण यतनाए स्नान करी शकाय.
कोइ कहे के दशाश्रुतस्कंधमां मासिकप्रतिमाघरमुनिने शीत के उष्णजळथी हाथपग वगेरा धोवा नहि कल्पे एम कहेल छे माटे हाथपग धोवानो निषेध जिनकल्पी माटे छे, स्थविरकल्पी माटे नथी. तेनुं ए उत्तर छे के ए सूत्रनो विषयविभाग ए रीते छे के हाथपग वगेरा धोवानो निषेध तो बन्ने कल्पमा छे पण तफावत एटलोज छे के जिनकल्पी माटे जे निषेध छे तेमां अपवाद नथी रहेल, अने स्थविरकल्पी माटे जे निषेध छे तेमां अपवाद रहेल छे. ए वावत पंचकल्पचूर्णिमां कडं छे के ग्लानादिक कारणे चौद . उपकरणी अधिक उपकरणो राखतां तथा शरीरनुं उद्वर्तन, ह. स्तपादादिधावन, नंखनयन, शोधन, तथा दातण करतां स्थविरकल्पीने प्रायश्चित्त नथी.