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________________ ( ७३ ) थे। भक्त उनके व्यय की पूर्ति करते । साइकिल साथ थी। वे बोझ नहीं उठाते। वस्त्र भी साथ के आदमी से धुलवा लेते । वे एक दिन भोजन नहीं करते । फल का जूस आदि लेते। उस दिन ध्यान में विशेष रूप से लगे रहते । दूसरे दिन भोजन करते। उनकी दृष्टि में आधाकर्म दोष आदि कर्मकाण्ड मात्र थे। कभी-कभी वे यहाँ तक कह देते –'इन शास्त्र में क्या रखा है ? सामायिक में वृथा समय खो रहे हो । इसे करते जिंदगी हो गयी । क्या पाया तुमने !' इसप्रकार कइयों को श्रद्धा से भ्रष्ट कर दिया। अब रणधीर मुनि अकुलाने लगे। एक दिन उन्होंने उन्हें छोड़ने का निर्णय कर लिया । क्योंकि उन्हें दुर्लभबोधि नहीं बनना था। वे युगवीर मुनि से बोले-“मैं अब तेरे साथ नहीं रह सकूँगा। मैं गुरुदेव के पास जाना चाहता हूँ।" "जैसी आपकी इच्छा । रूढ़ियों की शृंखला तोड़ना कोई खेल नहीं है।" रणधीर मुनि बोले-"बड़े क्रान्तिकारी बन गये हो सो तो जानता हूँ ! बेटे के मोह में तुम्हारे साथ आया था। परन्तु तुम्हारे मार्ग से भ्रष्ट होने की कोई सीमा नहीं" आवेश से युगवीर मुनि बोले-"क्या कहा-मैं मार्ग भ्रष्ट हूँ !" उसी तीव्र आवेश से रणधीर मुनि बोले --"हाँ, उन्मार्गगामी हो । उत्ससूत्रभाषी हो ? श्रद्धा भ्रष्ट हो !" युगवीर मुनि का मुंह क्रोध से लाल हो गया। वे जोर से बोले-"क्या धरा है सूत्रों में ? हमें कोई मार्ग नहीं बताये तो क्या करें ? हम साधना करने निकले हैं। किसी मत से बँधे नहीं हैं !" "तेरे लिये कुछ नहीं होगा सूत्रों में। हमारे लिये तो सर्वस्व हैं वे। तुम साधना को साधना समझते ही कहाँ हो ! संयम का तो नाश ही कर दिया तुमने और तप भी विकृत रूप में करते हो। ध्यान की रट लगाये हो। ध्यानमार्गियों में भी अकेले ध्यान का ही विधान है क्या ? साधना के अन्य अंगों का विधान नहीं है क्या ? तुम तो अपने आपको क्या समझ रहे हो-भगवान जाने !..."
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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