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________________ ( ५२ ) अयःप्रभ ने तलवार की मठ पर हाथ फिराते हुए कहा-"इसे क्षण भर भी दूर करने का मन नहीं होता है। बड़ी अद्भुत तलवार है, यह । बन्धु ! यह लौह के स्तंभ को खट से काट देती है, तो काष्ट स्तंभ और मनुष्यों की गर्दन इसके सामने क्या चीज हैं।" . तब रविप्रभ ने उसे चुनौती के स्वर में रुई के ढेर की ओर संकेत करते हुए कहा-“अच्छा, तो इसके ही एक वार में दो टुकड़े कर दो।" रविप्रभ की बात पर अयःप्रभ ने अट्टहास किया। वह बोला-“वाह भाई! आपने भी खब परीक्षा की बात कही। यह ढेर बिचारा खेत की मूली से अधिक नहीं है। यह लो!" यह कहकर उसने जोर से तलवार चलाई। किन्तु यह क्या ? तलवार हार गयी। तलवार ढेर के आरपार होकर भी उसके दो टुकड़े न कर पायी। ढेर ज्यों का त्यों खड़ा था। अब हँस पड़ा रविप्रभ! अयःप्रभ को बहुत बरा लगा। अतः वह रुष्ट स्वर में बोला-“यों क्यों हँसते हो भाई !" .. रविप्रभ ने कहा--"नाराज क्यों होते हो! चलो, इस ढेर की छाया के ही दो टुकड़े कर दो।" वह बोला-"कसी बात करते हो, भ्रातः! कहीं छाया के भी टुकड़े हुए हैं ?" "क्यों नहीं हो सकते हैं ? यह तलवार सबको काट देती है न !" "यह छाया कड़क पदार्थ थोड़े ही है !" "अच्छा, तलवार कड़क पदार्थ को ही काट सकती है। तलवार भी कड़क और स्तंभ भी कड़क । कड़क कड़क से टकराता है और उसे काट देता है। किन्तु कोमल रुई के ढेर को-उसकी घनत्व से रहित छाया को भी नहीं काट सकती है-यह विश्वविजेत्री तलवार! अर्थात् मानी-अकड़ से भरे जीव से मानी ही टकराता है-मानी ही मानी को काटता है । किन्तु मानी का मान मर जाता है विनम्र के सामने।" रविप्रभ को नमस्कार करके अयःप्रभ बोला-"आज आपने मेरी आँखें खोल दी, भाई ! अहा! उत्तम ज्ञान दिया। मान-अकड़ कड़काई
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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