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________________ ( ४२ ) करता है । ६. जिन-वचन से अभावित आत्मा की तो नियति यही है कि वह इस चक्र में फंसा रहे। क्रिया को पहचानने के लक्षण उदिओ य मणं दुटुं, वयणं असुहं खरं । कायं हिंसामयं किच्चा, दुत्थं जोगं करेइ सो ॥११॥ क्रोध उदित होकर मन को दुष्ट= द्वेष या बुरे भाव से युक्त करता है । वचन को अशुभ और कर्कश या कठोर बना देता है और काया को हिंसामय (=हिंसा की चेष्टा से युक्त) करके, वह (क्रोध) इसप्रकार योग को दुःस्थ (=दुष्प्रणिधानवाला) कर देता है। टिप्पण-१. क्रोध रूप कर्म के उदय में आने पर उसकी क्रिया प्रारंभ हो जाती है। २. यदि किसी के प्रति द्वेष, किसी का बुरा करने के भाव या अनिष्ट करने के भाव हो तो समझना चाहिये कि क्रोध ने अपना कार्य करना प्रारंभ कर दिया है। ३. वचन की अशुभता और कर्कशता भी क्रोध के उदय के चिह्न हैं। ४. काया में पर अहित-कर चेष्टाएँ भी क्रोध जनित होती हैं। ५. ऐसी या इनके सदृश और भी कोई दुष्ट क्रियाएँ हों तो वे क्रोध के उदय का संकेत देती हैं। क्रोध के स्तर की पहचान गिरी-पुढवि-वालुय-उदअ-राइओ समो। होइ चउविहो कोहो, मंदो य कमसो गई ॥१२॥ पर्वत, पृथ्वी, बाल-रेत और जल की रेखा के सदृश चार प्रकार का क्रोध होता है। (इसप्रकार भेद लक्षणवाले क्रोध के ये चार स्तर हैं।) ये क्रोध के स्तर क्रमशः मन्द हैं। इनमें प्रविष्ट होकर काल-धर्म को प्राप्त होनेवाले जीव क्रमशः चार गतियों में जाते हैं।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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