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________________ ( १७ ) अध्ययन में मात्र कषायों से संबन्धित वर्णन है, नोकषायों का नहीं । कषाय-चतुष्कों के सामान्य-विशेष कार्य मिच्छत्तस्स घरो अज्जं, बीआ विरइ-कारगं । तईअं संजमोरोहो, चउथं विरई-मलो ॥१५॥ आद्य चतुष्क=अनन्तानुबन्धीचतुष्क मिथ्यात्व का घर है। द्वितीय चतुष्क =अप्रत्याखानीचतुष्क अविरति का कर्ता है। तृतीय चतुष्क= प्रत्याख्यानावरण चतुष्क संयम का अवरोधक है और चतुर्थ चतुष्क= संज्वलन चतुष्क विरति का मल अर्थात् चरित्र को मलिन करने वाला है। टिप्पण-१. जब तक अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उदय होता है, तब तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है। यदि सम्यक्त्व-प्राप्ति के बाद उसका उदय हो जाता है तो छह आवलिक जितने समय से अधिक सम्यक्त्व का अस्तित्व नहीं रहता है (एक आवलिका एक सेकेण्ड के कई हजारखें भाग से कुछ न्यून होती है।) अतः वह मिथ्यात्व का घर है। २. जैसे घर में रहनेवाला गिरे हुए घर को बाँध सकता है। वैसे ही मिथ्यात्व विसंयोजित अनुबन्धी चतुष्क पुनः बाँध सकता है। ३. दूसरा अप्रत्याख्यानी जबतक उदय में रहता है, तबतक अविरति=पाप की निरन्तरता का-सावद्ययोग का तार नहीं टूटता है। जीव के परिणामों में जिनत्व लक्ष्य की सिद्धि के लिये अंश मात्रभी व्रत का आविर्भाव नहीं होता। ४. तृतीय चतुष्क प्रत्याख्यानावरण अर्थात् निरवद्ययोग अथवा सावद्ययोग के त्याग रूप महाव्रतों का अवरोधक है । उसके उदय से महाव्रतों की क्रिया करते हुए भी लक्ष्यसिद्धि रूप विरति के परिणाम नहीं आते । ५. चतुर्थ चतुष्क संज्वलन विरति के परिणाम को दूषित करता है। क्योंकि चरित्र के अतिचारों का उद्भव-हेतु संज्वलन है और इससे यथाख्यात चरित्र का भी अवरोध होता है।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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