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इन्हें क्रमशः तीव्र, मंद, मन्दतर मन्दतम और व्युत्क्रम से मन्द, तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम कहा जा सकता है। २. चारों कषायों के समान स्तर का चतुष्क बन जाता है । जैसे अनन्तानुबन्धीचतुष्क अर्थात् अनन्तानुबन्धीक्रोध, अनन्तानुबन्धीमान, अनन्तानुबन्धी माया और अनन्तानुबन्धी लोभ । इसी प्रकार शेष तीन चतुष्कों के विषय में भी समझ लेना चाहिये। ३. अनन्तानुबन्धी अर्थात् कर्मबन्ध की परम्परा को अनन्त तक पहुँचाने की योग्यतावाले कषाय । अप्रत्याख्यान अर्थात् कर्म-बन्ध या सावद्ययोग के अनवरोधक कषाय । प्रत्याख्यानावरण अर्थात् निरवद्ययोग को पूर्णतः घटित न होने देनेवाले कषाय और संज्वलन अर्थात् चिनगारी जैसा कषाय, जो कि आत्म-सामर्थ्य से अल्प समय में क्षीण हो सकता है, किन्तु आत्मनियन्त्रण' के अभाव में अनन्तानुबन्धी रूप महाज्वाला को प्रकट कर सकता है। ४. कषाय के ये चार प्रकार आत्म-विकास के तारतम्य दरसाने के लिये, किये गये है, मात्र संसार-अवस्था का विश्लेषण करने के लिये नहीं । किन्तु इनके माध्यम से संसार की अन्तरङ्ग परिणति को काफी अंशों में समझा जा सकता है। ५. इस प्रकार चार चतुष्कों के हिसाब से कषाय के सोलह प्रकार हो जाते हैं। चतुष्क के चारों कषायों का एक साथ उदय नहीं होता है। क्रोध मानादि में से किसी एक का उदय रहता है। अतः कषाय के सोलह प्रभेद सिद्ध हो जाते हैं। ६. नोकषाय भी किञ्चित कषाय रूप ही है और कषाय के अस्तित्व में ही फलता है-फूलता है। इसलिये प्रसंगवशात् 'तहा' शब्द से उसे भी समझने की दृष्टि से ग्रहण कर लेना चाहिये । इसके दो विभाग हैं.--हास्यादि और वेद । प्रथम विभाग के छह प्रकार-हास्य, रति = असंयम में आनन्द, अरति= संयम में उकताहट, भय, शोक और जुगुप्सा ='घृणा । द्वितीय विभाग के तीन भेद-स्त्रीवेद=स्त्रीत्व सम्बन्धी विकार, पुरुषवेद=पुरुषत्व सम्बन्धी विकार और नपुंसकवेद = नपुंसकत्व संबन्धी विकार । ७. वस्तुतः इनका विषय कषायों से किञ्चित् भिन्न ही हैं। इसलिये इस