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________________ ( ३१० ) बने रहना नहीं चाहता है। ४. प्रशस्तयोगी (गर्हा-प्रपन्न) अनगार में प्रबल भावधारा का आविर्भाव होता है। ५. साधक में लघुताभावना होती है । और उस भावना से ही भाव-विक्रम पैदा होता है। इसलिये विकत शब्द के क प्रत्यय लगाया है। ६. इस प्रबल भावधारा से घाति कर्मों के अनन्त पर्यव विनष्ट हो जाते हैं। ८. क्षयहेतु-क्रम-विचार कषायक्षय के दो क्रम खवणाए कसायस्स, वण्णिओऽभित्तरो कमो । खएण उवलद्धीओऽभिंतरा-परिणामया ॥७१॥ (यह) कषाय के क्षय का (प्रधान रूप से) आभ्यन्तर क्रम (कहा गया) है। क्योंकि क्षय से आभ्यन्तर परिणाम से जनित उपलब्धियाँ है । टिप्पण-१. प्रशम से गर्दा तक कषाय-क्षय का भीतरी क्रम है। २. मोहकर्म के अंश रूप में क्षय से ही ये प्रशम आदि भाव उपलब्ध होते हैं और फिर वे क्षायिक भाव को प्रबल बनाते हुए कषायों को क्षय करते हैं। ३. कषाय-क्षय के लिये विनय आदि भाव भी हो सकते हैं। परन्तु ये वणित भाव प्रधान हैं। ४. आभ्यन्तरक्रम के कथन से यह सिद्ध होता है कि कषाय-क्षय का बाह्य क्रम भी है। ५. इन भीतरी परिणामों से ही सम्यक्त्व, देश विरति आदि की उपलब्धि होती है। अत: उनकी क्रिया की आरोपणा कषाय-क्षय का बाह्य क्रम बन जाता है। जैसे सम्यक्त्व आदि को ग्रहण करवाना। भाव और क्रिया-- कियाणुसरगो भावो, भावाणुसरगा किया । एक्कमेक्कस्स सिद्धीवि, एक्कमेक्केण होइ ता ॥७२॥
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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