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________________ ( ३०९ ) सरणं तेसि गच्छामि, बेमि दुटुस्स बुट्ठयं ।' एवं गुरुण पामूले, गरिहाए स गच्छइ ॥६॥ 'मैं उनके शरण में जाऊँ और दुष्ट की दुष्टता कहूँ'-इसप्रकार वह गुरु के चरणों में गर्हा के लिये जाता है । गुरु की साक्षी से आत्मदोषों का कथन करना गर्दा है। इसलिये गुरु के चरण-शरण में जाने की आवश्यकता है । गर्दा का फल गरिहा गुरु-सक्खोए, माणवत्ति पणासइ । जोगाणं अप्पसत्थयं, हिच्चा देइ पसत्थयं ॥६९॥ गुरु की साक्षी से गर्हा (= अपने दोषों का कथन) मानवृत्ति= सन्मान-सत्कार को पाने की रुचि को नष्ट करती है और (अपुरस्कृत साधक के) योगों की अप्रशस्तता का अपहरण करके प्रशस्तता प्रदान करती है। पसत्य-जोग-आवन्नो, अणगारो विकंतओ। खवेइ पुरिसत्थेण, अणन्तघाइ-पज्जवे ॥७॥ प्रशस्त योग को प्राप्त विक्रान्तक=भावधारा में शूर अनगार (अपने आभ्यन्तर) पुरुषार्थ से अनन्त घाति-पर्यवों का क्षय करता है। टिप्पण-१. जब जीव चारों ओर से निराश होता है और अपने बल का अभिमान भी छूटता है, तब अनन्य भाव से शरण ग्रहण होता है । २. अनन्यभाव से गृहीत शरण विशिष्ट भाव-बल पैदा करता है। ३. गुरुदेव के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करने से अपनी निम्नता का तीव्रता से बोध होता है। जिससे योगों की अप्रशस्तता को दूर करना सरल हो जाता है। क्योंकि कोई भी सुज्ञ निम्नतम
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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