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________________ ( २६६ ) स्थितिवाले कर्मों का बन्ध होता है और वे थोड़े ही समय में क्षीण हो सकते हैं। ६. रसशोषक भाव कर्मोदय-जनित नहीं होता है । वह पुरुषार्थ-जनित होता है। वह भाव संवर और निर्जरा की क्रिया से उत्पन्न होता है, जिससे संवर और निर्जरा तत्त्व यथार्थ रूप से घटित होते हैं । ७. इस चिन्तन से इस शंका का समाधान हो जाता है कि जीव उदय और बन्ध के चक्र से मुक्त नहीं हो सकता है । अशद्ध भाव से जैसे कर्मबन्ध होते हैं, वैसे ही शुद्ध भाव से क्षय भी होते हैं। इसी बात को और स्पष्ट करते हैं-- बंधो असुद्ध - भावेणं, सो वि थर - कमेण हि । तम्हा भाव-विसोहीए, खओ सिद्धो असंसओ ॥६॥ (कर्मों का) बन्ध अशुद्ध भाव से होता है और वह (बंध) भी स्तर क्रम के अनुसार ही होता है। इसकारण भाव की विशुद्धि से (कर्म का) क्षय सिद्ध होता है-निःसंशय रूप से ।। टिप्पण--१. तीव्रकषाय अशुभ भाव है और मंदकषाय शुभ भाव है। ये शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के भाव अशुद्ध भाव है । क्योंकि कषाय का अंश दोनों में है। २. तीव्रकषाय के तीन स्तर तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम और मंदकषाय के भी तीन स्तर मंद, मंदतर और मंदतम । इन भावों के स्तर के अनुसार ही कर्मों का बन्ध होता है । ३. तीव्रतम कषाय से तीव्र कषाय की अशुद्धि कम और मंदकषाय से मंदतम कषाय की अशुद्धि कम होती है। इसप्रकार भावों की अशुद्धि का स्तर अति न्यून होना विशद्ध भाव के अस्तित्व को सिद्ध करता है। ४. विशद्ध भाव से नये कर्म का बन्ध नहीं होता और पुराने कर्मों का क्षय होता है। इसप्रकार भावविशुद्धि से कर्मक्षय सहज में ही सिद्ध हो जाता है । ५. विशुद्ध-भाव शुभाशुभ भाव से विलक्षण है। विशुद्ध भाव के प्रकार-- 'सम-संवेग-निव्वेया, धम्मसद्धा 'पलोयणा । निदा गरिहुवायात्ति, खयस्सण्णे वि कित्तिया ॥७॥
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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