SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २६५ ) तरतमता बद्धरस में तरतमता उत्पन्न कर सकती है। ८. भाव में कर्मरस का अमुक अंश में शोषण करने की शक्ति है तो उसमें कर्म के समस्त रस को शोषण करने की शक्ति पैदा की जा सकती है या पैदा हो सकती है। ९.जिन कर्मों के समस्त रस का शोषण हो जाता है, वे कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात उनमें फल प्रदान करने की शक्ति नहीं रहती है। अतः वे कर्म आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाते हैं । उसे निर्जरा कहते हैं । अतः आत्मा क्रमशः कर्मों से मुक्त हो सकता है। पहले कषाय की प्रकृतियाँ क्षय होती हैं, फिर अन्य कर्म । यही बात दूसरे ढंग कही जाती है रसो य जारिसो होइ, ठिई कमस्स तारिसी । सो वि हवेइ भावेणं, भावो खयस्स हेउ ता ॥५॥ और जैसा (तीव्र या मंद) रस होता है वैसी ही (उत्कृष्ट या जघन्य) स्थिति कर्म की होती है । वह (यह तीव्र या मंद रस) भी भाव से होता है। अतः (कर्मों के) क्षय का हेतु भाव ही है । टिप्पण-१. भाव की अशुद्धि की तरतमता के अनुरूप कर्म-बंध का हेतु रूप रस होता है अर्थात भाव की उत्कृष्ट या जघन्य अशुद्धि के अनुसार ही तीव्र या मंद रस होता है। २. तीव्र या मंद रस कर्म की उत्कृष्ट या जघन्य स्थितिबन्ध में कारण है। ३. न तो जीव के सदा तीव्र कषाय ही रहता है और न मंद ही । अतः सदैव एक सदृश स्थिति-बन्ध नहीं होता। कषाय की उत्कृष्ट स्थिति ४० कोड़ा-कोड़ी सागरोपम की है और जघन्य अन्तर्महर्त की । मध्यम अन्तमुहूर्त एक समय अधिक से लगाकर एक समय कम ४० कोड़ा-कोड़ो सागरोपम तक कई प्रकार की हो सकती है। ४. इस स्थिति बंध के हेतु रूप न्यूनाधिक रस का कारण भाव ही है। अत: ऐसा भी भाव हो सकता है कि रस अर्थात् कषाय भाव अत्यल्प हो और रसशोषक भाव विशेष हो वही भाव कर्मक्षय का हेतु है। ५. जब अत्यल्प रस होता है, अत्यल्प
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy