SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १९७ ) आवश्यक है । 'निर्विकार- चैतन्य' के विषय में निष्प्रकंप बुद्धि- अटल अडिग बुद्धि कषाय की दुर्बलता की जननी है । ८. परम पुण्य के प्रकर्ष में एकदम निर्लिप्त - परम वीतराग होते हैं, जिनेन्द्रदेव । उनके वीतराग स्वरूप और उनकी आज्ञा की निर्दोषता में मति सुदृढ़ होना चाहिये । जिनेन्द्र प्रभु के प्रति 'मति करने' का यही आशय है । ९. जिनेन्द्रदेव में उनके शुद्धत्व के कारण साधक के हृदय में प्रीति उत्पन्न होती है और श्रद्धा और भक्ति के रूप में परिणत होती है । १०. जिनेन्द्रदेव में प्रीति से उनकी आज्ञा में भी प्रीति उत्पन्न होती है । वीतराग और उनकी आज्ञा में प्रीति कषाय की दुर्बलता में हेतु बनती है । ११. जिनेन्द्रदेव के प्रति श्रद्धा और भक्ति से - 'परमाराध्य के भाव से वे ही शरण ग्रहण करने योग्य हैं - यह भाव उत्पन्न होता है । सिद्ध आदि की शरण - ग्रहणता भी इस भाव में गर्भित हो जाती है । १२. अरिहन्त भगवान आदि अचिन्त्य सामर्थ्य - सम्पन्न होते हैं । उनके शरणग्रहण से साधक आत्मा में भी प्रबल शक्ति उत्पन्न होती है । १३. कषायों के स्वरूप आदि के चिन्तन मात्र से कषाय निर्बल नहीं हो पाते हैं । क्योंकि स्वरूप - चिन्तनादि मात्र से अहंकार का विसर्जन नहीं होता है । इसलिये सात्त्विक बल पैदा नहीं होता है । १४. चार शरण ग्रहण से अहंकार - विसर्जन होता है - अपने बल का मद विनष्ट होता है । जिससे आत्मबल में तीव्रता उत्पन्न होती है । अतः कषाय तीव्रता को प्राप्त नहीं कर पाता । १५. जिनेन्द्रदेव में मति लगाने से ज्ञान और प्रीति लगाने से भाव विशुद्ध होता है । १६. धीर पुरुष ही कषायों को दुर्बल करने में सफल होता है । उपायों की सफलता न देखकर जो हारता नहीं है वही अभ्यास कर सकता है और अभ्यास से सिद्धि होती है ।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy