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मति की प्राप्ति होती है । १०. कषायों के क्षय का प्रकरण, मेरी स्मृति में प्रकट होकर आप ही कहें । मैं तो मात्र माध्यम हूँ । बोल के क्रम का हेतु
मुमुक्खो वि तवस्सी वि, वेयावच्ची सुयागरो । न चएइ कसायं जो, न सो मोक्खपहे ठिओ ॥२॥
(जीव) ममक्ष भी है, तपस्वी भी है, श्रुताकर=श्रत का निधि भी है और वैयावृत्यी भी है । किन्तु जो कषाय का त्याग नहीं करता है, वह मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है।
टिप्पण-१. इस गाथा में कषाय-त्याग का महत्त्व बतलाया गया है । २. जो मुमुक्षु अर्थात् मोक्षार्थी है, उग्र तपश्चरण भी करता है, श्रुत की वाचना भी लेता-देता है, वैयावृत्य आदि भी करता है; किन्तु कषाय को त्यागने की भावना नहीं रखता है, तो उसकी समस्त क्रियाएँ संवर-निर्जरा की हेतु न बनकर, बंध की ही हेतु बनती हैं । अतः वे क्रियाएँ मोक्षमार्ग नहीं हो पाती हैं । ३. शास्त्रों में कथन है कि जीवों ने अनन्त बार चरित्र की उत्कट क्रियाएँ की । परन्तु कषाय कभी विभाव रूप लगे ही नहीं । उन्हें त्यागने की श्रद्धा जागी ही नहीं । 'कोई निर्विकार शुद्ध चैतन्य हो सकता है'-ये भाव अन्तरङ्ग की गहराई में पैठे ही नहीं, तो फिर कषायों के त्यागने के भाव कैसे हो ? ४. कषायों और उनकी प्रवृत्ति को त्यागने के अभाव में-उन कषायों से छुटने की प्रवृत्ति और श्रद्धा के अभाव में ममक्ष आदि भाव निरर्थक ही हो जाते हैं । ५. यहाँ 'कषाय को न त्यागने' का आशय कषाय के भाव और प्रवृत्ति को न छोड़ना-छोड़ने का प्रयत्न ही नहीं करना' है । ६. श्रुत-अभ्यास आदि का क्रमभंग छंद की दृष्टि से हुआ है । ७. मुमक्षा-मोक्ष की इच्छा आदि के साथ क्रमशः अन्य बोलों को भी समझ लेना चाहिये ।