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________________ ( १५६ ) लोभ परम सुखरूप होकर जीवों को नृप के समान शासित करता है और त्रिभुवन में यह घोषणा करता है कि सभी (जीव) मेरी प्रजा हैंदास हैं। टिप्पण--१. जीवों को लोभ, आशा, चाह, आवश्यकता आदि रूप में अति आकर्षक और सुखरूप लगता है। लोकोक्तियाँ प्रसिद्ध हैं-'आशा अमरधन' 'चाह वहाँ राह', 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है', 'माँगोगे तो मिलेगा' आदि । २. लोभ आकर्षक रूप में अपना साम्राज्य फैलाये हुए है। तीन कषाय तो कदाचित् बुरे लग सकते हैं । किन्तु अनेक सुखमुद्राओं को धारण करके लोभ इतना आकर्षक, सुमधुर और इष्ट लगता है कि लोभ की बुराइयों के ज्ञाता भी 'यह लोभ का ही रूप है' यह बात ही भूल जाते हैं। ३. लोभ एक ऐसा शासक है, जो अपनी प्रजा को एक ऐसे मधुर नशे में डाल देता है कि प्रजा=जीव 'हम लोभ के समक्ष अदने दास से अधिक नहीं हैं' यह समझ ही नहीं पाते हैं। ४. लोभ के वश में पड़ा हुआ जीव सबका दास होता है। अन्य हानियाँ नच्चावेइ जगे लोहो, भमाडेइ इओ तओ। छड्डावेइ कुडुबिणो, भुक्खतिहाहि तावइ ॥९४॥ लोभ (जीवों) को जगत में नचाता है, इधर-उधर भटकाता है. कुटुम्बियों को छुड़ा देता है और भूख एवं प्यास से संतप्त करता है। टिप्पण-१. नचाने के तीन अर्थ - अभिनय-नाटक करवाना, दाव करवाना-लगवाना, विविध शारीरिक चेष्टाएँ करवाना। चौथा अर्थ नृत्य करवाना प्रसिद्ध ही है। यहाँ चारों अर्थ ग्रहण किये जा सकते हैं। २. लोभ के वश में पड़ा हुआ जीव कई प्रकार के नाटक करता है। परवश होकर नाटक करना हीनता का सूचक है। लोभ के कारण जीव अनेक दाव-पेंच
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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