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________________ ( १५३ ) जीव को उन्नत नहीं होने देती है, पीछे-अधोगति में धकेल देती है। २. पुरुष माया से स्त्रीवेद का, स्त्री नपुंसक वेद और नपुंसक तिर्यञ्चगति का बन्ध करते हैं। तिर्यञ्चगति के बन्ध का कारण माया ही है। पुरुष आदि भी माया से तिर्यञ्चगति का बन्ध कर लेते हैं। ३. गति का प्रतिघात अर्थात विकास का रुकना और पीछे हटना। जैसे कोई गतिशील पदार्थ किसी अवरोध से टकराता है तो उसकी गति रुक जाती है और वह कुछ पीछे लौट जाता है। वैसे ही जीव की गति के प्रतिघात का आशय है कि उसके विकास का अवरुद्ध हो जाना और निम्न गति में जा पड़ना। ४. देहिणो अर्थात् देहधारी जीव । देहधारी तो सभी संसारी जीव होते हैं। अतः इस शब्द से समस्त संसारी जीव ग्रहण हो सकते हैं। यह आशय भी यहाँ लिया जा सकता है। क्योंकि शरीरी जीव ही माया आदि कषाय करते हैं-अशरीरी नहीं। लेकिन यहाँ देही शब्द का विशिष्ट अर्थ लेना उचित है, धनी शब्द के समान । देही अर्थात् विकसित या विकसित होते हुए शरीरवाला। क्योंकि हानि विकास में ही हो सकती है। जहाँ विकास हीनहीं है, वहां क्या हानि होगी? ५. महाबलमुनि ने तपश्चरण में आगे रहने के लिये अपने मित्रों के साथ कपट किया। यद्यपि उनकी क्रिया प्रशस्त थी, फिर भी उसमें माया कषाय का विष घुल गया था। इसलिये उन्हें स्त्रीवेद का बन्ध हुआ। अतः उन्हें इस कर्म का दुष्फल तीर्थकर भव में भी स्त्री होकर भोगना पड़ा। ६. शुभ क्रिया में किया हुआ कषाय कषाय ही है । वह उस शुभ क्रिया को दूषित कर ही देता है। ऐसा ही शुभ उद्देश्य से किये गये कषाय के विषय में भी समझना चाहिये । क्योंकि शुद्ध साध्य के अनुरूप साधन भी शुद्ध ही होना चाहिये। उपसंहार और उपदेश एवं सुणिज्ज जाणिज्ज, मायं चितिज्ज पासह । इह-पारत्त-होणत्तं, करति अमियं दुहं ॥९१॥ इसप्रकार ऐहिक-पारलौकिक हीनत्व और अमित दुःख करती हुई माया (की हानि) को सुनो, जानो, सोचो और देखो।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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