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________________ ( १२१ ) के कारण तीव्र क्रोध करके दृष्टिविष सर्प के भव में उत्पन्न हुआ । वह दृष्टिविष सर्प ही चंड कौशिक था । ५. इसप्रकार क्रोध से जहर के उत्पन्न होने की परम्परा बनती है । क्रोध की दानवता करेइ निठुरं चित्तं, संघगुणाण दाहइ । उरं जणाण फाडेइ, कोहो दाणव-सारिसो॥६७॥ ___क्रोध चित्त को निष्ठुर करता है । गुणों के समूह को जलाता है। मनुष्यों के हृदय को फाड़ता है । (सचमुच में) वह दानव के समान है । टिप्पण-१. जो स्वयं निष्ठुर होता है वही अपने निष्ठुर व्यवहार से दूसरे को निष्ठर बनाता है। २. नैष्ठ्यं, विनाश, हृदय फाड़कर रक्त-पान करना आदि दानव के कार्य हैं। क्रोध यही तो कार्य करता है । इसलिये वह दानव है । उपसंहार और उपदेश एवं सुणिज्ज जाणिज्ज, कोहं चितिज्ज पासह ! इह-पारत्त - होणत्तं, करतं अमियं दुहं ॥६॥ इसप्रकार ऐहिक और पारलौकिक हीनता तथा अमित दुःख करते हुए क्रोध को सुनो, जानो, विचारो और देखो। टिप्पण-१. पश्यना के चार चरण-श्रवण, ज्ञान, चिन्तन और दर्शन । २. सद्गुरु या क्रोधादि के स्वरूप के विशेषज्ञ से क्रोधादि के स्वरूप, फल आदि को सुनना श्रवण है । जैसे इस भव में अपनी मृत्यु का अनुभव किसी को नहीं होता है। परन्तु अपनी मृत्यु के
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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