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आग यहीं-इस भव में ही जलाती है। किन्तु क्रोध तो भव-भव में जलाता है । कमठ क्रोधभाव से कितने भव में जलता रहा !
टिप्पण-१. भगवान श्री पार्श्वनाथजी के चरित्र में यह बात प्रसिद्ध है कि उनका पूर्व भव का भाई कमठ उनके प्रति दश भव तक क्रोध में दग्ध होता रहा। २. क्रोध के संस्कार इसी भव में समाप्त नहीं हो जाते हैं । किन्तु कई भवों तक साथ चलते रहते हैं । ३. जबतक क्रोध की आग जीव स्वयं शान्त नहीं करता है, है, तबतक क्रोध से क्रोध उत्पन्न होता ही रहता है । ४. क्रोध के कारण पाप का-अशाता का विशेष रूप से बन्ध होता है । चरित्रमोहनीय का भी बन्ध होता है । जिससे दुःख और चरित्रहीनता की परम्परा चलती है । ५. चरित्रहीनता भव-परम्परा का हेतु है। क्रोध जहर है और उसका उत्पादक भी है
धिद्धी! विसस्स कोहस्स, जो हिच्चा संजमं धणं । पेसेइ साहगं दुट्ठो, रुद्दे दिट्टिविसे भवे ॥६६।।
(उस) क्रोध रूपी जहर को धिक्कार हो-धिक्कार हो, जो दुष्ट, साधक को (उसके) संयम धन का अपहरण करके रौद्र दृष्टिविष (साँप) के भव में भेज देता है।
टिप्पण-१. क्रोध तीव्र जहर है। क्योंकि वह संयम रूपी जीवनधन को तत्काल समाप्त कर देता है। २. क्रोध शरीर में विष को उत्पन्न करता है। ३. अति क्रोधी व्यक्ति क्रोध में मरकर भयंकर जहरीला सर्प बन सकता है । ४. इस विषय में भगवान महावीरदेव के चरित्र से संलग्न चण्डकौशिक का उदाहरण प्रसिद्ध है । जो पूर्वभव में शिष्य पर क्रोध करके ज्योतिषी देव बना। वहाँ से च्यवकर कौशिक नामक ऋषिपुत्र बना और वहाँ भी पूर्व के संस्कार