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जो बाह्य पुद्गलों की अथवा कर्म के उदय से होनेवाले ( निर्मित ) सभी पदार्थों की इच्छा है, उसे ही लोभ समझो ।
टिप्पण -- १. 'बाह्य पुद्गल' के दो अर्थ — जीव से संलग्न पुद्गलों से भिन्न पुद्गल और आत्मा और आत्मा की आभ्यन्तर शुद्ध परिणति से भिन्न पुद्गल तथा पुद्गल की परणति । २. स्थूल दृष्टि से पहला अर्थ ग्राह्य है । क्योंकि लोक में पौद्गलिक पदार्थों को पाने की इच्छा को ही लोभ कहा जाता है । उसमें सुख भोग और काम-भोग भी गर्भित हो जाते हैं । इस आशय से यह भाव ध्वनित होता है कि 'सोना, चाँदी, मणि, माणिक्य, मकान, जमीन आदि निर्जीव पदार्थ की चाह ही लोभ है । किन्तु 'च' शब्द से इस एकान्त आशय का परिहार किया गया है अर्थात् सचित्त, अचित्त और मिश्र तीनों प्रकार की पौद्गलिक वस्तुओं की इच्छा लोभ है । इसमें पाँचों इन्द्रियों के विषय गर्भित हो जाते हैं । ३. सूक्ष्मदृष्टि से दूसरा आशय ग्राह्य है। क्योंकि आत्मा और उसकी शुद्ध परिणति के सिवाय होनेवाले भाव कर्म के उदय से होते हैं। वे तीन प्रकार के हो सकते हैं—शरीरगत, आत्मगत और लोकगत । बल, सौन्दर्य, वर्ण आदि शरीरगत; हर्ष, वेदविकार, सुख-संवेदन आदि आत्मगत और पूजा-प्रतिष्ठा, यश आदि लोकगत भाव हैं । इनकी इच्छा भी लोभ ही है । ४. लोभ - परिभाषा का दूसरा विकल्प दिया है— 'कर्म - जनित पदार्थों अवस्थाओं की इच्छा' - लोभ है । शुभ या अशुभ कर्मों के उदय से जीव को जिन-जिन पदार्थों की उपलब्धि होती है या अभाव होता है और जो अज्ञान, निद्रा, इन्द्रियक्षीणता, दु:ख, सुख, विकास आदि अवस्थाएँ होती हैं, उन सबकी इच्छा लोभ है । यह परिभाषा और व्यापक हो जाती है । ५. शंका- 'क्या अज्ञान, अभाव, दु:ख, शोक, विकार, कुरूपता, निम्न कुल आदि की इच्छा हो सकती है ? समाधान - उनमें सुखभाव का आरोपण हो जाने पर उनकी भी इच्छा हो - इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। ६. इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान, सद्गुण, देव-गुरुचरण- सान्निध्य, धर्माराधन, मोक्ष आदि की इच्छा लोभ नहीं है । क्योंकि ये इच्छाएँ मोह के उदय से नहीं, उसके क्षयोपशम से होती हैं । जब इन