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________________ ( ८७ ) टिप्पण-१. क्रोध, माया आदि के भाव, मोहनीय की तथारूप कर्मप्रकृति के उदय से होती है। परन्तु एक प्रकृति का वेदन दूसरी प्रकृति के उदय में निमित्त भी बनती है। जैसे दसवेयालिय (अ.५ उ. २) में कहा है-पूयणट्ठी...मायासल्ला च कुवइ (गा. ३५)-"पूजा का अर्थी.. मानसम्मान पाने के लिये...मायाशल्य को करता है। इसी अपेक्षा से मान और लोभ को माया की योनि कहा है। २. मानमोहनीय कर्म के उदय से जब जीव को मान-सम्मान पाने की चाह उत्पन्न होती है और लोभ मोहनीय के उदय से किसी वस्तु को पाने की इच्छा होती है, तब वे सहजता से प्राप्त न होने पर जीव छल, कपट, धूर्तता.आदि का प्रयोग करने लगता है। यों भय आदि के कारण माया की जा सकती है। परन्तु वे कारण गौण है। ३. माया का पोषण मृषावाद और मिथ्या व्यवहार से होता है। झूठ के बिना माया नहीं चल सकती है। बनावटीपन और दिखावटीपन ही माया को दढ़ बनाते हैं। ४. जब बनावट और दिखावट प्रकट हो जाती है अर्थात् माया से प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, तब आक्रोश पैदा होता है। अतः माया क्रोध की जननी भी बन जाती है। माया मान और लोभ से उत्पन्न होकर पुनः उन्हीं का पोषण करती है। अतः वह उनकी धात्री-सी बन जाती है। इसप्रकार यह अन्य कषायों की हेतु बनती है। ५. माया तीन शल्यों में एक है। अतः माया मोक्षमार्ग के पथिकों के लिये दुःखदायिनी है। उनकी गति को कण्टक के समान रोकती है। अतः जीव के संसार को भव को बढ़ाती है। साथ ही माया संसार = गुदगुदी उत्पन्न करनेवाले फिसलाव का विस्तार करती है। लोभ की परिभाषा पोग्गलाणं च बज्झाणं, सोसि कम्मजाण वा । जा पयत्थाण इच्छत्ति, लोभो सा चेव जाणिया ॥३३॥
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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