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________________ सकी और रोग बढ़ता ही गया, परन्तु उन्होंने निर्भीक होकर अपना कर्त्तव्य निभाया । वे बुझदिल होकर चूपचाप देखते नहीं रहे । उनके ऐसे स्पष्ट विचारों से उनके विरोधियों की संख्या भी I बढ़ी होगी । वे उनके शत्रु बने होंगे, किन्तु उन संस्कृतिप्रिय आचार्यश्री ने इसकी परवाह नहीं की। आज तो इतनी हिम्मत के दर्शन भी दुर्लभ हो गये । चैत्यवासी पूजारंभी देवद्रव्य - भोगी “चेइयमठाइवासं पूयारंभाइ निच्चवासितं । देवाइदव्वभोगं, जिणहरसालाइकरणं च ||६१|| ये चैत्य और मठ में रहते हैं, पूजा का आरम्भ करते हैं, सदैव एक ही स्थान पर पड़े रहते हैं, देव आदि द्रव्य का उपभोग करते हैं और जिनघर तथा धर्मशाला आदि बंधवाते हैं ।। ६१ ।। उस समय चैत्यवास पूर्णरूप से विकसीत हो चुका था । जहाँ-तहाँ साधु, मंदिरों में अड्डा जमाये रहते थे । मंदिर की व्यवस्था, मरम्मत, विकास, जिर्णोद्धार आदि किसी भी बहाने इच्छित स्थान पर टिक जाते थे और खुद पूजा करने लग गये थे । भगवान् की पूजा में पानी पुष्पादि का आरम्भ करना भी चालू हो गया था। इसमें संघ को भी लाभ था । उपासक तो कोई दिन-रात मंदिर में रहकर व्यवस्था और रक्षा कर नहीं सकता था । वेतनभोगी पुजारी भी समय पर पूजा आदि करके चला जाता था । क्योंकि उसके पीछे भी तो घर गृहस्थी के झंझट रहते थे। जितनी उत्तम व्यवस्था साधु कर सकता है, उतनी और 48
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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