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गीत गाते हैं ।।६०।।
कुछ वर्ष पूर्व पंजाब के किसी साधु ने लोच के विरुद्ध पेम्पलेट प्रचारित किये थे । उसके पूर्व श्रीसंतबालाजी ने भी विरुद्ध अभिप्राय व्यक्त किया था । हमने ऐसे कई साधु देखे जिनके मस्तक पर बड़े-बड़े बाल थे, किन्तु दाढी बिलकुल सफाचट, जैसे उस्तरे से साफ की हो । एक तरफ यह हाल है, दूसरी ओर कोई-कोई त्याग भावना वाले श्रावक अपनी इच्छा से ही स्वयं लोच करते हैं। जहाँ श्रद्धा और संयम की रुचि होती है, वहाँ लोच का कष्ट नगण्य बन जाता है, किन्तु सुखशीलियापन में लोच से बचकर केश कर्तन की प्रवृत्ति होती है।
उस समय रजोहरण और मुखवस्त्रिका पर भी साधुओं की उपेक्षा तथा अप्रसन्नता हो गई थी।1 काम होता, कहीं जाना होता, या किसी वैसे व्यक्ति से मिलने का प्रसंग आता, अथवा व्याख्यान का अवसर होता, तब तो उपयोग करते अन्यथा इधर-उधर पड़े रहते । होते-होते मुहपत्ति की यहाँ तक स्थिति बनी कि वह कभी तो कमर के चोलपट्टे में खोंसी हुई रहने लगी
और कभी इधर-उधर पड़ी पैरों में कुचली जाने लगी, और व्याख्यान में मुट्ठी में पकड़ी हुई रह जाती है, जब दोनों हाथ हीलते है। ___एकाकी भ्रमण, स्वच्छन्दता आदि सब दुराचार के लक्षण हैं । श्री हरिभद्रसूरिजी म. ने इन दुराचारों के विरोध में आवाज उठाई। यद्यपि उस बढ़ते हुए विकार को उनकी आवाज नहीं रोक 1. वर्तमान में विहार में रजोहरण थेला गाडी में रखकर दोनों हाथ हिलाते बुट पहने हुए एक महाराज को देखा था। (सं.)
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