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एक राजकुमार को चम्पे के सुगन्धित फूलों की माला पहनने का बड़ा शोक था। वह घोड़े पर सवार होकर वन विहार को निकला। वह नगर में होकर जा ही रहा था कि घोड़े के नाचने कूदने से राजकुमार के सिर पर से चम्पकमाला छटक कर नीचे गिर गई। राजकुमार माला लेने के लिए घोड़े पर से नीचे उतरा। जब उसने देखा कि माला तो विष्ठा पर पड़ी है, तो वह निराश हुआ और बिना माला लिए ही घोड़े पर सवार होकर चल दिया।
इस उदाहरण से आचार्यश्री कहते हैं कि पार्श्वस्थादि असंयमी साधु, विष्ठा के समान हैं और शुद्धाचारी निर्ग्रन्थ, चम्पकमाला के समान हैं, जिन्हें प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी उपासकगण 'मत्थएण वंदामि' करके मस्तक पर धारण करते हैं, किन्तु उनमें से कोई, किसी भी कारण से, अपना शुद्धाचार नहीं छोड़ते हुए भी पासत्था के साथ हो जाय और उनमें रहने लगे, तो वह भी विष्टा पर पड़ी हुई चम्पकमाला के समान उपेक्षणीय है। फिर वह वन्दनीय, पूजनीय नहीं रहता। यद्यपि चम्पकमाला अपने आप में विष्ठा नहीं है, किन्तु विष्ठा की संगति ने ही उसकी वंदनीयता समास कर दी, उसकी प्रतिष्ठा नष्ट कर दी।
हलवा (मोहन भोग) तब तक ही सर्वप्रिय रहता है, जब तक वह जठर में पहुँचकर मल के रूप में बाहर नहीं निकल जाय। उसी प्रकार गुरु भी तब तक ही वंदनीय रहते हैं, जब तक कि वे असंयम द्वारा ग्रसे जाकर पार्श्वस्थादि रूप नहीं बन जाय। पार्श्वस्थादि रूप धारण करने पर तो वे स्वयं विष्टा जैसे घृणित (विसमेवगरहिए) हो जाते हैं और उनके संभोगी सहयोगी एवं साथी संयमी भी विष्ठा में पड़े हुए अमृतफल की तरह उपेक्षणीय
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