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________________ लोहशिला के समान डुबाने वाले जह लोहसिला अप्पं पि बोलए तह विलग्गपुरिसंपि । इय सारंभो य गुरू, परमप्पाणं च बोलेइ ||२१|| जिस प्रकार लोहशिला, खुद डूबती है और उससे संलग्न पुरुष को भी डुबा देती है, उसी प्रकार आरंभ समारंभ वाले गुरु, स्वयं भी डूबते हैं और दूसरों को भी डुबाते हैं ।।२१।। ____ काष्ट की नौका का सहारा लेने वाला तिरता है, तो लोहे या पत्थर की शिला उठाकर सागर से पार होने की आकांक्षा रखने वाला डूबकर जीवन नष्ट कर देता है। इसी प्रकार असंयमी गुरु, खुद डूबते हैं और भक्तों को भी डुबा देते हैं। सर्व संवृत्त कहाकर भी कुशीलिए आश्रव का सेवन करते हैं। आरंभ समारंभ करते हैं। कोई स्वयं मंदिर, उपाश्रय, स्थानकादि धर्म स्थान बनवाने के लिए, तो कोई विद्यालय, औषधालय, समाधि, छत्री आदि बनाने के लिए, कई प्रकार से स्वयं आरम्भ समारंभ करते हैं। ये संयम से ही नहीं, सम्यक्त्व से भी पृथक् हो चुके हैं। पास में खड़े रहकर भी कार्य करवाते हैं। विष्ठा गत मालावत् असुइठाणपडिया, चम्पकमाला न कीरइ सीसे । पासत्थाइट्ठाणेसु वट्टमाणा तह अपुज्जा ||२२|| जिस प्रकार अशुचि के स्थान में पड़ी हुई चम्पकमाला मस्तक पर धारण करने योग्य नहीं रहती, उसी प्रकार पार्श्वस्थादि के साथ रहते हुए गुरु भी अपूज्य-अवन्दनीय हो जाते हैं ।।२२।। [गु.त.वि.नि.उ. ३ गाथा १२६]
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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